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________________ समाधि में मुनियों की आवश्यकता समाधि में आचार्य को क्षपक के भावों की स्थिरता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। यदि भावों में कोई विकार आ जावे तो समाधि विकृत हो जाती है। अतः निर्दोष और निर्विघ्न समाधि करने के लिये उत्कृष्ट 48 परिचारक मुनियों की आवश्यकता होती है। मध्यम रीति से साधुओं की संख्या चार-चार कम करते जाना चाहिये। अत्यन्त निकृष्ट रीति से भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में जघन्य रूप से दो मुनिराज अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये। अकेला साधु समाधि कराने में समर्थ नहीं होता है। निर्यापक के बिना क्षपक अशान्ति से मृत्यु प्राप्त करके भयानक दुर्गति में जाता है। वर्तमान में भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में 44 मुनियों का सान्निध्य होना चाहिये।' सल्लेखना आत्मघात नहीं __ इस तथ्य को समझने से पहले हमें यह समझना चाहिये कि आत्मघात क्या है? आत्मघात का स्वरूप वर्णित करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी लिखते हैं कि - जो पुरुष निश्चय कर कषाय से रंजित होता हुआ कुम्भक श्वास रोकता है, जल, अग्नि, विष और शस्त्रों आदि के द्वारा प्राणों को नष्ट करता है, यही वास्तव में आत्मघात है। ठीक इसके विपरीत सल्लेखना करने वाला तो न मरण चाहता है, न अग्नि में कूदता है, न जल में कूदकर प्राणों का त्याग करता है। वह तो मरणकाल जानकर शान्त भाव सहित होकर देह का विसर्जन करता है। सल्लेखना आत्मघात कदापि नहीं है, इसे और भी स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं - मरणेऽवश्यंभाविनी कषाय सल्लेखनातनुकरण मात्रे। रागादिमंतरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति। अर्थात् मृत्यु के अवश्यंभावी होने से राग-द्वेष और मोह के बिना कषाय और शरीर को कृश करने के व्यापार में प्रवर्तमान पुरुष के सल्लेखना धारण करने में आत्मघात नहीं होता। यहाँ कोई शंका करे कि सल्लेखनाधारी प्राणों को शरीर से हटाने भगवती आराधना 676-678 पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लो. 178 पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लो. 177 320 Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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