________________ अन्त समय संन्यास धारण की विधि अपने आयु कर्म को क्षीण होता जानकर शीघ्र ही मन में अरिहन्त एवं सिद्ध परमेष्ठी को धारण करके उनसे अपने दोषों की आलोचना करें तथा समस्त शल्य रहित होकर, समस्त ममत्वभाव को छोड़कर मोक्ष प्राप्ति के लिये दो प्रकार संन्यास धारण करें। पहला संन्यास इस प्रकार धारण करना चाहिये कि इस देश में इस काल तक यदि मेरे प्राण निकल जायें तो जन्म पर्यन्त चारों प्रकार के आहारों का त्याग तथा दूसरे संन्यास में प्रतिज्ञा करता है कि मैं अपने पुण्य से इस घोर उपद्रव से कदाचित् बच जाऊँगा तो मैं धर्म और चारित्र की सिद्धि के लिये इतने काल के बाद पारणा करूँगा।' इस प्रकार अकस्मात् मरण काल आने पर अपने मन को विशुद्ध बनाता हुआ आहारादि का त्याग स्वयं भी कर सकता है, क्योंकि मरण काल में भावों की विशुद्धि का ही विशेष महत्त्व है। श्रावकों को मरण काल में महाव्रत अवश्य ग्रहण कर लेना चाहिये, जिससे परिणाम विशुद्ध बनते हैं। श्रावक को अन्त समय में स्नेह, बैर और परिग्रह को छोड़कर विशुद्ध भाव वाला होता हुआ प्रिय वचनों से अपने कुटुम्बियों और नौकरों से क्षमा कराते हुए स्वयं भी सबको क्षमा करें। समस्त पापों की आलोचना करें और मरण पर्यन्त रहने वाले महाव्रतों को धारण करें। यदि चारित्र मोहनीय कर्म के उदय होने से वह दीक्षा ग्रहण नहीं कर सकता, तो मरण समय उपस्थित होने पर संस्तर श्रमण होकर क्रम से आहारादि का त्याग करना चाहिये। निर्यापकाचार्य के अभाव में सल्लेखना श्रावक को मुनि के सान्निध्य में ही समाधि लेना चाहिये। मुनि की अनुपस्थिति में श्रावक क्षपक की मनोदशा देखकर आहार, वस्त्र, परिग्रह एवं परिजन से ममत्व आदि विकल्पों का त्याग करा सकता है। मुनिसंघ के सान्निध्य के बिना श्रावक सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग न करावें, क्योंकि श्रावकों को दीक्षा देने का अधिकार नहीं है। यदि श्रावक समर्थ, जागरूक एवं होश में हिताहित का निर्णय लेने में सक्षम हो, तो आत्मबल की सजगता से वह स्वयं वस्त्र त्याग कर सकता है। इसमें भी दूरस्थ किसी साधु का निर्देश अथवा सामीप्य अवश्य लेना चाहिये। मूलाचार प्रदीप 2819-2820 सावयपण्णत्ति 378 319 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org