________________ अर्थात् कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगावधिज्ञान ये तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाते हैं तथा भगवान् जिनेन्द्र देव जो केवलज्ञान रूपी दृष्टि रखने वाले हैं, ने सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद बतलाये हैं। मइणाणं सुयणाणं उवही मणपज्जयं च केवलयं। तिण्णिसया छत्तीसा मइ सुयं पुण वारसंगगय॥' अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान सम्यग्ज्ञान हैं। इनमें से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हैं तथा श्रुतज्ञान के बारह अंग कहे गये हैं। मतिज्ञान के आचार्यों ने मुख्य रूप से चार भेद किये हैं-'अवग्रहहावायधारणा:"। अर्थात् अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये मतिज्ञान के चार भेद हैं। 1. अवग्रह - विषय-विषयी के सन्निपात रूप दर्शन के पश्चात् जो अर्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है। जैसे चक्षु इन्द्रिय के द्वारा वह 'शुक्लरूप' है - ऐसा ग्रहण करना अवग्रह है। विषय और विषयी का सम्बन्ध होने पर जो होता है वह सन्निपात है। 2. ईहा - अवग्रह के द्वारा जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानने की इच्छा/चेष्टा करना ईहा है। जैसे वह शुक्लरूप बगुला है या पताका। ईहा में पदार्थ के ज्ञान में संशय बना रहता है। . 3. अवाय - विशेष चिह्न देखने से वस्तु का निर्णय हो जाना ही अवाय है। जैसे उस शुक्ल पदार्थ में पंखों का फड़फड़ाना, उड़ना आदि चिह्न देखने से बगुला निश्चय हो जाना। 4. धारणा - अवाय से निश्चित किये हुए पदार्थ को कालान्तर में नहीं भूलना धारणा है। जैसे बगुला को आगामी समय में देखकर नहीं भूलना ही धारणा है। भावसंग्रह गाथा 291 त. सू. 1/15 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org