________________ और कुछ क्षेत्र के लिये भी किया गया परिमाण इसी व्रत के अन्तर्गत ग्रहण किया जाता है। दिग्व्रत के पाँच अतिचारों का वर्णन करते हए आचार्य समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि - ऊर्ध्व दिशा का अतिक्रमण करना, अधो दिशा का अतिक्रमण करना, तिर्यक् दिशाओं में अतिक्रमण, क्षेत्र वृद्धि करना और लिये गये परिमाण को भूल जाना इन पाँच अतिचारों का त्याग करने से यह व्रत विशुद्ध पालन किया जा सकता है। 2. अनर्थदण्डविरति व्रत - मन, वचन और काय योगों की व्यर्थ प्रवृत्ति को रोकना अनर्थदण्डविरति व्रत कहलाता है। जिन कार्यों को करने का कोई अर्थ या प्रयोजन नहीं हो और व्यर्थ में पाप बन्ध होता है उसे अनर्थदण्ड कहते हैं। इनको त्याग करना ही अनर्थदण्डविरति व्रत कहा जाता है। अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या।' पापोपदेश विरति - तिर्यञ्चों को क्लेश पहुँचाने का, उन्हें बाँधने आदि का उपदेश देना, तिर्यञ्चों का व्यापार करने को कहना, हिंसा, आरम्भ और दूसरों को छलकपट आदि से ठगने की कथाओं का प्रसंग स्मरण कराना, ऐसी कथाओं को बार-बार कहने को पापोपदेश अनर्थदण्ड कहते हैं। पाप के कारणभूत उपदेश को नहीं देना पापोपदेश अनर्थदण्डविरति व्रत कहलाता है।' हिंसादान विरति - जिनसे हिंसा होती है ऐसे उपकरणों को नहीं देना हिंसादान विरति है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं कि हिंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, आग, अस्त्र-शस्त्र, विष और सांकल आदि को देने को ज्ञानीजन हिंसादान नाम का अनर्थदण्ड कहते हैं। ऐसे हिंसोपकरण नहीं देना हिंसादानविरति है।' अपध्यान विरति - कुत्सित, खोटा चिन्तन करना अर्थात् द्वेष से किसी प्राणी के वध, बन्धन और छेदन आदि का चिन्तन करना तथा राग से परस्त्री आदि का चिन्तन करना अपध्यान अनर्थदण्ड है और इससे विरत होना अपध्यान विरति व्रत है।' . र. श्रा. 75 र. श्रा. 76 वही 77 वही 78 300 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org