________________ दःश्रुति विरति - दुर् अर्थात् कुत्सित, श्रुति का अर्थ शास्त्र है, जो शास्त्र राग, द्वेष, मोह, विषय-कषायों की इच्छा आदि को बढ़ाते हैं, उनका पठन-पाठन दु:श्रुति कहा गया है। ऐसे शास्त्रों को पढ़ने-सुनने का त्याग करना दु:श्रुति विरति व्रत कहा है। प्रमादचर्या विरति - प्रयोजन के बिना भूमि खोदना, पानी को ढोलना, व्यर्थ में अग्नि जलाना, पंखे आदि चलाना, वनस्पति आदि को छेदना एवं निष्प्रयोजन स्वयं घूमना एवं घुमाना इत्यादि क्रियायें करने को ज्ञानीजन प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड कहा गया है। प्रमादयुक्त चर्या प्रमादचर्या है। प्रमादपूर्वक प्रवृत्तियों का त्याग करना प्रमादचर्या विरति व्रत कहा गया है। आचार्य उमास्वामी और समन्तभद्रस्वामी ने अनर्थदण्डविरति व्रत के पाँच अतिचारों को वर्णित किया है - रागभाव की अधिकता से हास्य रूप भण्ड वचन बोलना, तीव्रराग से हास्य वचनों सहित शरीर से खोटी चेष्टायें करना, बिना प्रयोजन धृष्टतापूर्वक व्यर्थ बकवास करना, बिना प्रयोजन आवश्यकता से अधिक भोगोपभोग की वस्तुओं का संग्रह करना और बिना प्रयोजन मन, वचन एवं काय की दुष्प्रवृत्ति करना।' इन अतिचारों से रहित साधक महान् हिंसा और आरम्भ से बच सकता है। 3. भोगोपभोगपरिमाण व्रत - परिग्रह परिमाण किए हुए में से भी रागभाव की आसक्ति को घटाने के लिये पञ्चेन्द्रिय विषयों का परिमाण करना भोगोपभोगपरिमाण नामक तृतीय गुणव्रत है।' यह व्रत इन्द्रियों के विषय में स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकने वाला तथा महासंवर का कारण है। भोगोपभोग का लक्षण बताते हुए आचार्य कहते हैं - जो पदार्थ एकबार भोगे जाने पर त्यागने योग्य हो जाते हैं, वे भोग कहलाते हैं और जो एकबार भोगे जाने के बाद फिर भी बार-बार भोगने में आवें, वे उपभोग कहलाते हैं। जैसे फूल, भोजन, लेप आदि भोग हैं एवं वस्त्र, आभूषण, घर, सवारी आदि उपभोग हैं। भोगोपभोगपरिमाणव्रत में प्रतिदिन भी कुछ नियम कर सकते हैं। जैसे आज कितने बार भोजन करूँगा, कितने पेय पदार्थों को ग्रहण करूँगा, काम सेवन नहीं करूँगा र. श्रा. 80 त. सू. 7/32, र. श्रा. 81 र. श्रा. 82 301 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org