SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव तत्त्व - जीवतत्त्व के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि जीवो अणाइ णिच्चो उवओग संजुदो देहमित्तो य। कत्ता भोत्ता चेत्ता ण हु मुत्तो सहाव उड्ढगई।286।। अर्थात् यह जीव अनादि है, अनिधन है, उपयोग स्वरूप है, शरीर के प्रमाण के समान है, कर्ता है, भोक्ता है, चेतना सहित है, अमूर्त है और स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करने वाला है। इस गाथा से समानता रखते हुए आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी ने द्रव्यसंग्रह में भी लगभग ऐसी ही जीव की विशेषतायें बताई गई हैं।' - जीव का स्वरूप वर्णित करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि पाणचउक्कपउत्तो जीवस्सइ जो हु जीविओ पुव्वं। जीवेइ वट्टमाणं जीवत्तणगुण समावण्णो।287।। . अर्थात् इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास ये चार प्राण कहलाते हैं, ये चारों प्राण बाह्यप्राण हैं और इस संसारी जीव के चारों प्राण रहते हैं। जो जीव पहले जीवित था, अब जीवित है और आगे जीवित रहेगा वह जीव कहलाता है, इस प्रकार जो ऊपर लिखे चारों प्राणों से जीवित रहता है वह जीवत्वगुण सहित जीव कहलाता है इसमें बाह्यप्राण के जो चार भेद किये गये हैं उनके भी प्रभेद करने पर प्राण के दस भेद हो जाते हैं। उनमें इन्द्रियाँ पाँच (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण) बल तीन (मनोबल, वचनबल, कायबल) आयु और श्वासोच्छ्वास ये कुल दस प्रकार के प्राण हो जाते हैं। समस्त जीव अपने-अपने अनुकूल प्राण से जीवित रहते हैं। जैसे एकेन्द्रिय जीव के चार प्राण (स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास) ही हो सकते हैं। ऐसे ही सभी जीवों में यथायोग्य जान लेना चाहिये। * भावसंग्रह की इस गाथा के जैसे ही आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी ने भी मिलती जुलती गाथा लिखी है। द्वीन्द्रिय आदि जीवों में कितने प्राण होते हैं, उनका एक चार्ट यहाँ निरूपित किया जाता है जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई।।2।। तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य। ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।।3।। 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy