SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पदार्थ का बन्ध पदार्थ में अन्तर्भाव करने पर सात तत्त्व कहे जाते हैं। ऐसे ही तत्त्वों के सात भेद सभी आचार्यों ने स्वीकार किये हैं ये उसमें विशेषता है कि कुछ आचार्यों ने जन पण्य और पाप को सम्मिलित करके नौ पदार्थ रूप में भी स्वीकार किया है तो किन्हीं आचार्यों ने पाप और पुण्य को बन्ध के अन्दर ही समाहित कर लिया है और आचार्य उमास्वामी महाराज ने पाप और पुण्य को आस्रव तत्त्व में समाहित किया है। सातों तत्त्वों को इस क्रम में रखने का हेतु उपदेशित करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि सब फल जीव को मिलता है अतः सूत्र के प्रारम्भ में जीव का ग्रहण किया है। अजीव जीव का उपकारी है यह दिखलाने के लिये जीव के बाद अजीव का कथन किया है। आस्रव जीव और अजीव दोनों को विषय करता है अतः इन दोनों के बाद आस्रव को ग्रहण किया है। बन्ध आस्रव पूर्वक होता है इसलिये आस्रव के बाद बन्ध का कथन किया है। संवत जीव के बन्ध नहीं होता अतः संवर बन्ध के बाद कहा गया है। संवर के होने पर निर्जरा होती है इसलिये संवर के बाद निर्जरा कही है। मोक्ष अन्त में प्राप्त होता है इसलिये उसका अन्त में कथन किया है। मोक्ष संसारपूर्वक होता है और संसार के प्रधान कारण आस्रव और बन्ध हैं तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा हैं, अतः प्रधान हेतु, हेतु वाले और उनके फल के दिखलाने के लिए अलग-अलग उपदेश किया है। तत्त्व के भेदों का स्वरूप - आचार्यों ने सातों तत्त्वों में परम उपादेय जीव तत्त्व को विशेष रूप से वर्णित किया है। जीव के स्वरूप को समस्त विशेषताओं से सहित वर्णन किया है जिनमें आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने जो जीवतत्त्व का वर्णन किया है वह अन्य स्थानों में अर्थात् अन्य किसी भी आचार्य के द्वारा उनके शास्त्रों में नहीं पाया जाता है। और भी अन्य आचार्यों ने अपने शास्त्रों में प्रकरण के अनुसार यथायोग्य वर्णन किया है। उसी प्रकार आचार्य देवसेन स्वामी ने भी जीवतत्त्व के स्वरूप को विशेष रूप से उसकी मुख्य-मुख्य विशेषताओं को वर्णित किया है। जिसमें उन्होंने मुख्यरूप से भावसंग्रह ग्रन्थ में सातों तत्त्वों का सामान्य रूप से विवेचन किया है। बृ. द्र. स. 2/28 चूलिका 22 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy