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________________ तत्त्वों के भेद तत्त्वों के भेद करने में मुख्य रूप से जिस वस्तु का जो स्वभाव है वही तत्त्व होने से तत्त्व एक भेद वाला है तथापि आचार्यों ने तत्त्वों के भिन्न-भिन्न भेद प्रदर्शित किये हैं। नियमसार ग्रन्थ की तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं कि बहिस्तत्त्व और अन्तस्तत्त्व रूप परमात्मतत्त्व ऐसे दो भेदों वाले तत्त्व हैं।' तत्त्व के भेदों में अन्य प्रकार से वर्णन करते हुए सात भेद किये गये हैं। उनमें सर्वप्रथम आचार्य उमास्वामी चे वर्णन किया हैं _ 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्" अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। यही विषय तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार आचार्य पूज्यपाद स्वामी, आचार्य अकलंक स्वामी और आचार्य विद्यानन्दि ने भी स्वीकार किये हैं। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने भी नियमसार की टीका में लिखा है-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष के भेद से तत्त्व सात होते हैं।' आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी ने भी सात तत्त्वों का ही वर्णन किया है परन्तु उन्होंने साथ में पुण्य और पाप को जोड़ देने से उनको नौ पदार्थ देवसेन स्वामी ने भी स्वीकार किया है और उसको अपने भावसंग्रह नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में वर्णित किया है कि ते पुण जीवाजीवा पुण्णं पावो य आसवो य तहा। संवर णिज्जरणं पि य बंधो मोक्खो य णव होंति॥ अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व है। इनमें पुण्य और पाप मिलाने से नौ पदार्थ हो जाते हैं। इसी विषय में और विशेषता लाने के लिये बृहद् द्रव्य संग्रह की टीका करने वाले आ. ब्रह्मदेवसूरी लिखते हैं कि नौ पदार्थों में पुण्य और पाप दो पदार्थों का सात पदार्थों से अभेद करने पर अथवा पुण्य और पाप नियमसार, तात्पर्यवृत्ति 1/5 तत्त्वार्थसूत्र 1/4 जीवाजीवानवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाणां भेदात् सप्तधा भवन्ति। नि. सा. ता. वृ. 1/5 आसव बंधण संवर णिज्जरमोक्खो सपुण्ण पावा जे। जीवाजीवविसेसा तेवि समासेण पभणामो।। वृ. द्र. स. 28 21 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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