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________________ दितीय परिच्छेद : तत्त्व का स्वरूप 'तद्भावस्तत्त्वम्" अर्थात् वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व कहलाता है। इसी परिभाषा को और अधिक स्पष्ट करते हुए आ. पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि-'तत्त्व' शब्द भाव सामान्य वाचक है, क्योंकि 'तत्' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है। अतः उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहाँ तत्त्व पद से कोई भी पदार्थ लिया गया है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप अवस्थित है, उसका उस रूप होना यही यहाँ , तत्त्व शब्द का अर्थ है। तत्त्व के स्वरूप को ही और अधिक स्पष्टता देते हुए आ. अकलंक स्वामी कहते हैं कि अपना तत्त्व स्वतत्त्व होता है, स्वभाव, असाधारण धर्म को कहते हैं अर्थात् वस्तु के असाधारण रूप स्वतत्त्व को तत्त्व कहते हैं। तत्त्व को और अधिक अच्छी प्रकार से समझाते हुए पं. राजमल्ल कहते हैं कि - तत्त्व का लक्षण सत् है अथवा सत् ही तत्त्व है। जिस कारण से वह स्वभाव से ही सिद्ध है, इसलिए वह अनादि निधन है, वह स्वसहाय है और निर्विकल्प है। तत्त्व के स्वरूप में और विशेषता बताते हुए आ. अकलंक स्वामी कहते हैं - अविपरीत अर्थ के विषय को तत्त्व कहते हैं। इसी सन्दर्भ में आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि - तदिति विधिस्तस्य भावस्तत्त्वम्। कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेशः। सर्वनयविषयाणामस्तित्वविधायकत्वात्। तत्त्वं श्रुतज्ञानम्।' अर्थात् तत् इस सर्वनाम से विधि की विवक्षा है, तत् का भाव तत्त्व है। श्रुत की विधि संज्ञा कैसे है? ऐसा प्रश्न पूँछे जाने पर आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं चूंकि वह सब नयों के विषय के अस्तित्व विधायक है, इसलिये श्रुत की विधिसंज्ञा उचित ही है। तत्त्व श्रुतज्ञान है, इस प्रकार तत्त्व का विचार किया गया है। सर्वार्थसिद्धि: 2/1 तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची कथम्? तदिति सर्वनामपदम्। सर्वनाम च सामान्ये वर्तते। तस्य भावस्तत्त्वम्। तस्य कस्य? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः। सर्वार्थसिद्धिः 1/2 पञ्चाध्यायी पूर्वार्ध धवला 13/5 20 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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