________________ रहते हैं। गुण-गुणी के प्रदेश अभिन्न होते हैं, इसलिये इन्हें अभेदरूप ही से माना जाता सांसारिक विषयों से तो मन को शन्य करना उचित है, किन्तु जो आत्मस्वभाव के शुद्ध अस्तित्व में शून्य हो गया है वह समस्त ध्यान व्यर्थ है। अतः ध्यानी सर्वदा आत्मा के विषय में जागरूक रहता है। आत्मा में शून्य और अशून्य की अवस्था का अनेकान्त बताते हैं कि - आत्मा शून्य और. अशून्य दोनों है। परस्पर विरोधी गुण एक ही तत्त्व में एक ही समय में सम्भव नहीं है ऐसा माना जाता है, परन्तु ऐसा नहीं है। आत्मा सांसारिक विषय सामग्रियों के चिन्तन से रहित है। अतः शून्य है, परन्तु अपने आत्मस्वरूप का मनन करने के कारण अशून्य है। अतः एक ही समय में आत्मा शून्य होते हुए भी सर्वथा शून्य नहीं है। शून्य ध्यान से तात्पर्य निर्विकल्पक समाधि है। समाधि में स्थित होता आत्मा अनादिकाल से बंधे हुए समस्त कर्मों को नष्ट कर देती है। यदि योग रूपी कल्पवृक्ष मनरूपी मत्त हाथी द्वारा अथवा मिथ्याज्ञान रूपी दावानल के द्वारा भस्म नहीं होता, तो निश्चित ही मोक्षरूपी समीचीन फल को प्राप्त करता है। जिस प्रकार जल में नमक की डली एकमेक हो जाती है उसी प्रकार जिसका चित्त ध्यान में लीन हो जाता है उसके हृदय में शुभ एवं अशुभ कर्मों को जलाने वाली आत्मरूप अग्नि उत्पन्न होती है। ___ इस शून्य ध्यान के द्वारा समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय एवं अन्य गुण भी प्रकट होते हैं, क्योंकि ध्यान से कुछ भी प्राप्त करना दुर्लभ नहीं है। निज शुद्ध स्वभाव में स्थित सिद्ध भगवान् एक समय में समस्त द्रव्य का और उनकी गुण-पर्यायों को युगपत् जानते और देखते हैं। उन्हीं सिद्ध भगवान् के स्वरूप को और विशेष रूप से बताते हैं - शरीर रहित वे सिद्ध भगवान् अनन्तकाल तक इन्द्रिय से उत्पन्न विषयों से रहित, उपमा रहित, सहज सुख का अनुभव करते हैं।' सिद्ध भगवान् का ज्ञान ही शरीर होता है, तीनों प्रकार के कर्म रूपी मलों से रहित होते हैं। आराधनासार गा. 76 आराधनासार गा. 87 आराधनासार गा. 89 235 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org