________________ संसार एक विषय कषाय से भरे हुए मगरमच्छों का निवास स्थान है। अत: इसमें रहने वाला कभी भी निश्चिन्तता को प्राप्त नहीं हो पाता। क्रोध, मान, माया और लोभ से युक्त सभी जीव हैं। ऐसे सार रहित संसार को त्यागना ही जिनवाणी का सार है। इसलिये अपने स्वरूप और सुख की प्राप्ति के लिये आराधना चतुष्टय की आराधना प्रतिसमय करना चाहिये। आराधना का फल प जो भी भव्य जीव शुभ भावों से आराधनाओं की आराधना करता है वह निश्चित रूप से उसके फलस्वरूप सल्लेखना धारण करके समाधिमरण को प्राप्त करता है। आराधना का फल समाधि है। समाधि को प्राप्त करने के लिये ही चारों आराधनाओं की विशुद्ध भाव से आराधना की जाती है, क्योंकि ये आराधनायें संसार का विनाश करने के लिये प्रवचन की सारभूत हैं। ऐसे समाधिपूर्वक मरण के आचार्यों ने कई प्रकार के भेद बताये हैं। आचार्य शिवकोटि महाराज ने मरण के 17 भेद, पाँच भेद और तीन भेद प्ररूपित किये हैं। आचार्य शिवकोटि ने जो 17 भेद किये हैं उनके नाम इस प्रकार हैं- 1. आवींचिका मरण, 2. तद्भव मरण, 3. अवधि मरण, 4. आद्यंत मरण, 5. बाल मरण, 6. पण्डित. मरण, 7. आसन्न मरण, 8. बालपण्डित मरण, 9. सशल्य मरण, 10. पलाय मरण, 11. दशात मरण, 12. विप्राण मरण, 13. गध्रपष्ठ मरण. 14. भक्तप्रत्याख्यान मरण. 15. इंगिनी मरण, 16. प्रायोपगमन मरण, 17. केवलि मरण। इन सत्रह भेदों में से संक्षेप करके पाँच भेदों का निरूपण भी आचार्य ने किया है। वे इस प्रकार हैं ___1. पण्डित-पण्डित मरण, 2. पण्डित मरण, 3. बालपण्डित मरण, 4. बाल मरण और 5. बाल-बाल मरण।। ___ इन पाँच मरण में भी जो मुख्य रूप से प्रशंसनीय हैं वे तीन भेद इस प्रकार है - 1. पण्डित-पण्डित मरण, 2. पण्डित मरण, 3. बालपण्डित मरण। भग. आ. गा. 25 भग. आ. गा. 26 236 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org