________________ मन का प्रसार रुकने के बाद मन का उपयोग शून्य ध्यान में लगाना चाहिये। इसलिये अब शून्यध्यान को कहते हैं शून्यध्यान - शून्यध्यान का लक्षण कहते हैं जत्थ ण झाणं झेयं झायारो व चिंतणं किंपि। ण य धारणा वियप्पो तं सुण्णं सुट्ठ भाविज्ज।' अर्थात् जिसमें ध्यान, ध्येय और ध्याता का विकल्प नहीं है, जिसमें किसी प्रकार का चिन्तन नहीं है और धारणा का विकल्प नहीं है, उसे शुन्यध्यान जानना चाहिये और उसकी अच्छी प्रकार से भावना करनी चाहिये यहाँ आशय यह है कि जहाँ आर्त्त, रौद्र, धर्म्य, और शुक्ल के भेद से चार प्रकार का ध्यान नहीं है। जिन, बुद्ध, शिव, ब्रह्मा, विष्ण आदि अनेक प्रकार के ध्येय का विकल्प नहीं तथा शुचि, प्रसन्नवदन, देव-शास्त्र-गुरु का भक्त, सत्यवान, शील-दयादि से युक्त, चारों ध्यानों को जानने में कुशल, बीजाक्षरों की अवधारणा करने वाला, इन विशेषणों वाला लोक में ध्याता का भी विकल्प नहीं, जिसमें शुक्ल-पीतादि, शत्रु के बध-बन्धनादि का तथा स्त्री अथवा राजा की अधीनता आदि का विकल्प नहीं है, कालान्तर में 'नहीं भूलना' रूप धारणा भी जिस अवस्था में नहीं है तथा असंख्यात लोक प्रमाण जो मानसिक विकल्प हैं, वे भी जिस अवस्था में नहीं हैं उसे शुन्यध्यान जानना चाहिये। आचार्य कहते हैं कि तुम यदि कर्मों का क्षय करना चाहते हो तो शीघ्र ही अपने मन को विकल्पों से रहित करो, क्योंकि मन के निर्विकल्प हो जाने पर ही निश्चय से आत्मतत्त्व प्रकाशमान होता है। जिस प्रकार बादलों का विघटन हो जाने पर सूर्य प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार राग-द्वेष से रहित मन हो जाने पर निर्मल विभाव रहित सकल, विमल केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। शून्यध्यान में परिणत आत्मा के परिणाम अत्यन्त विशुद्ध होते हैं। इसलिये शून्यता और शुद्धभाव में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि पर-पदार्थ अशुद्ध है और उनसे शून्य होना शुद्धता का सूचक है। जीव के आश्रय से ज्ञान, दर्शन, चारित्र ये सब गुण आराधनासार गा. 78 आराधनासार गा. 74 234 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org