________________ मन की और विशेषता को वर्णित करते हुए आचार्य कहते हैं - यह मन रूपी राजा एक निमेष मात्र काल में देव, असुर, विद्याधर और राजा आदि के समस्त भोगों को अपने भोग का विषय बना लेता है। अतः उस मन के समान इस लोक में अन्य कोई महायोद्धा नहीं है।' ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि - यह मन रूपी दैत्य क्षण भर में अपनी चपलता से बिना थकावट के तीन सौ तैंतालीस राजु प्रमाण सम्पूर्ण तीन लोक में भ्रमण कर सकता है। अतः इस मन का प्रभाव दुर्विचिन्त्य है अर्थात् इसका हम चिन्तन करके कथन नहीं कर सकते। मन के विकल्पों का अभाव होना मन का मरण है और राजा के मरण से इन्द्रिय रूपी सेना भी अशक्त हो जाती है। मन तथा इन्द्रिय के संयमित होने पर कर्मों का संवर और निर्जरा होती है। निर्जरा होने से निश्चित ही पंच परावर्तन रूप संसार का अभाव हो जाता है और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। जो पुरुष मनरूपी ऊँट को ज्ञान की भावना से नहीं रोकता है वह चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है। मन की प्रबलता ध्यान में रखते हुए इसे नष्ट करने का उदाहरण देते हुए कहते हैं - मन एक वृक्ष है जिसकी राग-द्वेष दो बड़ी शाखायें हैं। इन शाखाओं से अन्य कई इन्द्रिय-विषय उपशाखायें मिलकर मन रूपी वृक्ष को विस्तृत करती हैं। जिस प्रकार वृक्ष में फल लगते हैं उसी प्रकार मनरूपी वृक्ष में इच्छा रूपी फल विस्तार से प्राप्त करते हैं, इसलिये इसे मोहरूपी जल से नहीं सींचना चाहिये। मन रूपी वृक्ष को निर्मूल करके इसकी उपशाखाओं को काटकर इसे विस्तार रहित करना चाहिये। इससे मन का व्यापार नष्ट हो जाता है और इन्द्रियाँ असहाय होने से अपने विषयों में प्रवृत्त नहीं हो पाती हैं, क्योंकि जड़ कट जाने पर उसमें पत्ते आदि की उत्पत्ति नहीं होती है। यदि कोई शरीर को निश्चल करके मुख से एक शब्द भी उच्चारण न करे किन्तु उसका मन चञ्चल है तो शरीर और वचन की अस्थिरता सब व्यर्थ है, क्योंकि समग्र कर्मास्रव का मुख्य कारण मन की चंचलता है, इसलिये इसे निश्चल करना ही प्रधान लक्ष्य होना चाहिये। आराधनासार गा.59 233 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org