________________ चरतु विनयवृत्तिं बुध्यतां विश्वतत्त्वं यदि विषयविलासः सर्वमेतन्न किञ्चित्॥ अर्थात् सम्पूर्ण शास्त्रों को पढ़ लो, आचार्य संघों की सेवा कर लो, तपश्चर्या में दढ रहो, महान् आतापन आदि योगों का अभ्यास करो. विनयपूर्वक आचरण करो अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार विनयपूर्वक आचरण अथवा देव, शास्त्र और गुरु की विनय करो, समस्त तत्त्वों का ज्ञान कर लो, यदि हृदय में विषयाभिलाषा है तो ये दर्शनादि आराधनायें सभी निष्फल हैं, इनका कुछ भी फल प्राप्त नहीं हो सकता। इन्द्रिय सुखों को बाह्य में नहीं अन्तरंग से त्याग करना चाहिये, क्योंकि वांछा ही दुःख का कारण होती है। वांछा को छोड़ने से स्वयमेव अन्तरंग में तृप्ति का एहसास होता है। अतः लालसा ही करना है तो शुद्ध आत्मतत्त्व की करो। वास्तविकता तो यही है कि इन्द्रिय से प्राप्त होने वाले सुख, सुख नहीं सुखाभास हैं, क्योंकि ये परद्रव्य के समागम से प्राप्त होते हैं। 7. मनविजय -- जो इन्द्रियों का संचालक है ऐसा मन, इसको अवश्य ही जीतना चाहिये, क्योंकि इन्द्रियों को प्रवृत्ति करने का आदेश मन से ही प्राप्त होता है। मन को जीत लेने से इन्द्रियों पर विजय तो एकदम सहज हो जाती है। मन की विशेषता बताते हुए आचार्य कहते हैं इंदियसेणा पसरइ मणणरवइपेरिया ण संदेहो। तम्हा मणसंजमणं खवएण यहवदि कायव्वं।' अर्थात् मनरूपी राजा के द्वारा प्रेरित इन्द्रिय रूपी सेना अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति करती है, इसमें कोई भी संशय नहीं है। अतः क्षपक अर्थात् कर्मों का क्षपण करने में तत्पर साधक को मन को संयमित करना चाहिये। सेना का नायक जैसे राजा होता है वैसे ही इन्द्रिरूपी सेना का नायक मन है। जैसे सेना राजा के बिना कुछ भी करने में असमर्थ है उसी प्रकार मन के बिना इन्द्रियाँ भी कुछ भी प्रवृत्ति करने में असमर्थ होती हैं। इसलिये इन्द्रियों को वश में करने के लिये सर्वप्रथम उनके राजा मन को वश में करना आवश्यक है। आराधनासार गा. 58 232 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org