________________ सीयाई वावीसं परीसहसुहडा हवंति णायव्वा। जेयव्वा ते मुण्णिा वरउवसमणाणखग्गेण॥' अर्थात् ये शीतादि बाईस परीषह अतिसुभट हैं, ऐसा जानकर मुनिराज को उत्कृष्ट उपशमभाव और ज्ञान रूपी तलवार के द्वारा उनको जीतना चाहिये। ये 22 परीषह महासुभट, महायोद्धा हैं, कायर अथवा विषयाभिलाषी पुरुष इन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इनको उत्कृष्ट मुनिराज परमोपशमभाव और ज्ञान रूपी खड्ग से ही जीत सकते हैं। वे 22 परीषह इस प्रकार हैं - क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शैय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन।' तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, रत्नकरण्डक श्रावकाचार और आराधनासार आदि अनेक ग्रन्थों में इनका स्वरूप विस्तार से उपलब्ध होता है। अतः यहाँ मात्र इनका नाम ही दिया जा रहा है। कई लोग संयम को धारण तो कर लेते हैं, परन्तु दृढ़ निश्चयी न होने के कारण इन परीषहरूपी सुभटों से पराजित होकर पुनः विषय-सुख की ओर गमन कर जाते हैं। जैसे - आदिनाथ भगवान के साथ जो चार हजार मुकुटबद्ध राजा दीक्षित हो गये थे परन्तु कई साधु क्षुधा आदि परीषह को सहन नहीं कर पाने के कारण स्वच्छन्द प्रवृत्ति का अनुसरण करते हुए पुनः विषय भोगों में लिप्त होकर इन्द्रिय सुखों की ओर पलायन कर गये थे। अतः परीषहों से पीड़ित व्यक्ति को चिन्तन करना चाहिये कि मैं इनके वशीभूत होकर संसार में दु:खों को सहन कर रहा था, अतः इन्हें पराजित किये बिना दु:ख नष्ट नहीं होंगे। ऐसा सोचकर परीषहों पर विजय प्राप्त करने के लिये परीषहों को सहन करना चाहिये। सामान्य रूप से तप करने से निर्जरा होती है, परन्तु परीषह होने पर जो समताभाव धारण किये हुए रहता है, उसके अधिक कर्मों की निर्जरा होती है। परीषह में अधिक निर्जरा होने का कारण यह है कि सामान्य स्थिति में तो सभी समताभाव धारण कर लेते हैं, किन्तु विपरीत परिस्थिति में भी जो साम्यभाव को धारण किये रहता है तो आराधनासार गा. 40 त. सू. 9/9 229 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org