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________________ उसके अधिक निर्जरा होती है। अत्यधिक वेदना से पीड़ित होने पर भी यदि मध्यम भावना करता है तो अशुभ कर्म नष्ट होते हैं। यहाँ अशुभ कर्म से तात्पर्य घातिया कर्मों से है। शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न वीतराग भावों में स्थिर हो जाने पर घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय) कर्मों का नाश हो जाता है। परीषहजय करने में जो असमर्थ होते हुए परीषहरूपी सुभटों से भयभीत होकर चारित्ररूपी रणभूमि को छोड़ देते हैं वे इस लोक में तो हंसी के पात्र होते ही हैं और परलोक में भी दु:खों को प्राप्त करते हैं। परीषह रूपी दावानल से संतप्त हुआ यह संसारी प्राणी यदि ज्ञानरूपी सरोवर में प्रवेश करता है तो वह निजस्वभाव रूपी जल से अभिषिक्त होने से निर्विकल्प होकर वेदना को भूलकर निर्वाण को प्राप्त करता है। . परीषहजय करना तो मनि पर निर्भर करता है। जैसे दंशमशक परीषह हो तो वे पीछी से उसका परिमार्जन कर सकते हैं किन्तु उपसर्ग के निवारण का कोई उपाय नहीं है। अतः परीषह की अपेक्षा उपसर्ग में ज्यादा समताभाव धारण करना पड़ सकता है। इसलिये अब उपसर्ग के विषय में कहते हैं 5. उपसर्गजय - पूर्व में उपार्जन किये गये कर्मों के उदय से सचेतन आदि अनेक प्रकार के दु:खजनक उपसर्ग आते हैं, इन उपसर्गों में साम्यभाव अथवा स्वसंवेदन ज्ञान से सहित चित्त से राग-द्वेष के अभाव रूप रहते हैं। आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि कैसा भी उपसर्ग आ जाये उस उपसर्ग को मुनि समताभाव से सहन कर लेते हैं और ऐसा विचार करते हैं ये मेरे पूर्व में उपार्जित किये गये कर्मों का ही फल है। ये उपसर्ग ज्ञानभावना से ही जीते जा सकते हैं। वे उपसर्ग सामान्य से एक प्रकार, चेतन और अचेतन के भेद से दो प्रकार है। चेतन उपसर्ग - तिर्यञ्चकृत, देवकृत और मनुष्यकृत के भेद से तीन प्रकार के हैं। अचेतनकृत, देवकृत, मनुष्यकृत और तिर्यञ्चकृत के भेद से चार प्रकार के हैं। (i) अचेतनकृत उपसर्ग - जो उपसर्ग अचेतन पदार्थों के द्वारा अनायास ही उत्पन्न हो जाते हैं वे अचेतनकृत उपसर्ग कहलाते हैं। जैसे दावानल, बाढ़, तूफान, भूकम्प आदि। इसमें शिवभूति मुनि आदि का नाम शास्त्रों में उद्धत किया गया - 230 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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