________________ तप का फल सुखरूप में मिलता है। परन्तु वह पुनः दु:खों को देने वाला होता है जिसे आगम की भाषा में पापानुबन्धी पुण्य कहते हैं। अतः जो पुण्य बाद में दु:ख का अनुभव कराये वह व्यर्थ है। ये कषायें अनन्त शक्तियुक्त आत्मा को अनादि कर्मबन्ध के कारण अपने वश में करने वाली बलवन्त और दुर्जय हैं। अर्थात् अनन्तवीर्य वाला आत्मा अनादिकाल से कषायों के वश में रहा है। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक बड़ी कठिनता से परपदार्थों में जाने वाले परिणामों को अवरुद्ध करके अपने स्वरूप में स्थापित करने पर ही कषायों पर यह जीव विजय प्राप्त कर सकता है, इसलिये ये कषायें दुर्जय कहलाती हैं। इन कषायों को कृश करने से ध्यान में स्थिरता होती है और ध्यान में स्थिरता कषाय कृश करने का फल है। प्रारम्भ के तीन गुणस्थानों में कषायों के आधारभूत मिथ्यात्वरूपी राजा का एकछत्र राज्य होता है और कषायों के प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन का अभाव है। इसलिये ये कषायों को जीतने की सामर्थ्य से रहित होते हैं। चतुर्थ गुणस्थान से ही कषायों को पछाड़ने में सामर्थ्य रहती है। जब जक यह क्षपक कषायों के वश में रहता है तब तक वह संयमी नहीं हो सकता है, क्योंकि कषायें संयम का घात करने वाली होती हैं। क्षपक सम्यग्दर्शन आदि आराधनाओं का आराधक तभी हो सकता है जब वह कषायों पर विजय प्राप्त करता है। विवेकी पुरुषों को कषाय के कृश होने पर अथवा संज्वलन कषाय के प्राप्त होने पर धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान में स्थिरता की प्राप्ति होती है। कषायों के कृशित हो जाने से चित्त में एकाग्रता आती है, चित्त एकाग्र रहने से श्रमण (क्षपक) उत्तम धर्म को प्राप्त करता है। अतः निजात्मा की उपलब्धि के लिये कषायों को कुश करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। साधु की स्थिरता को भंग करने के लिये परीषह उत्पन्न होते हैं, उनको जीतना भी परम आवश्यक है, क्योंकि परीषहजय निर्जरा में प्रमुख कारण हो सकती है। 4. परीषहजय - परीषहजय के स्वरूप एवं परीषह को जीतने का उपाय बताते हुए आचार्य कहते हैं 228 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org