________________ भावशुद्धिमबिभ्राणाश्चारित्रं कलयंति ये। त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते तितीर्थंति महार्णवम्।। अर्थात् जो पुरुष भावशुद्धि को धारण किये बिना चारित्र धारण करते हैं, वे नाव छोडकर भुजाओं के द्वारा महासमुद्र को तैरना चाहते हैं। यहाँ यह आशय है कि भावों की शद्धि ही मुख्य रूप से चारित्र कहा गया है। ___ पाँचों पापों का सर्वथा त्याग करना महाव्रत कहलाता है। यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना समिति कहलाता है। सम्यक् रूप से मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को रोकना गप्ति कहलाता है। आचार्य देवसेन स्वामी ने 13 प्रकार के चारित्र के साथ दो प्रकार का असंयम भी प्रतिपादित किया है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण और मन के विषयों में राग-द्वेष करना इन्द्रिय असंयम और पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकाय जीवों की विराधना करना प्राणी असंयम कहलाता है। . दोनों प्रकार के असंयम का त्याग करना संयम कहलाता है। इस प्रकार भावशुद्धि से तेरह प्रकार के चारित्र को धारण करना और दो प्रकार के असंयम का त्याग करना सम्यक्चारित्र आराधना है। अतः इसका निरतिचार पालन करना चाहिये। सम्यक् तप आराधना इच्छा का निरोध (रोकना) करना तप कहलाता है 'इच्छा निरोधो तपः'। इच्छा में राग तथा द्वेष दोनों समाहित होते हैं, इसलिये राग-द्वेष को बढ़ाने वाली इच्छा का अन्त कर देना ही तप कहलाता है। वास्तविकता भी यही है कि संसार की समस्त समस्याओं का कारण राग और द्वेष हैं। किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति आकर्षण होता है वह राग और व्यक्ति या वस्तु के प्रति अरति भाव का उत्पन्न होना द्वेष कहलाता है। जैसे - माता-पिता आदि सम्बन्धियों के प्रति आकर्षण भाव राग तथा अन्य अपने से सम्पन्न जनों के प्रति अरतिभाव द्वेष है। जब तक राग-द्वेष युक्त भाव से सहित होता है तब तक यह व्यक्ति चिन्तामुक्त नहीं हो सकता है। अत: जिससे राग है उसका अच्छा चाहना और जिससे द्वेष है उसका बुरा चाहना ही इच्छाओं को जीवित रखता है। इच्छाओं के रहने पर चिन्ता चारों ओर से इस जीव को बन्धन में रखती है। अत: चिन्तारहित जीवन की प्राप्ति 213 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org