________________ के लिये इच्छा को समाप्त अथवा सीमित करना तप आराधना है। इसी विषय पर विशेष रूप से प्रकाश डालते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं - 'तिण्णं श्यणाणमाविब्भावट्ठमिच्छणिरोहो' अर्थात् तीनों रत्नों (सम्यग्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) को प्रकट करने के लिये जो इच्छा को रोकना है वह तप है। धवलाकार भी इच्छा के निरोध को सूचित करते हैं, क्योंकि आकर्षण और प्रतिकर्षण जब तक व्यक्ति से लगा रहता है तब तक सही निर्णय लेना कठिन होता है और निर्णय रहित व्यक्ति के लिये कार्य करना असम्भव है। इसी क्रम में आचार्य देवसेन स्वामी ने परम्परा का निर्वाह करते हुए आराधनासार में तप को इस प्रकार परिभाषित किया है बारहविहतवयरणे कीरइ जो उज्जमो ससत्तीए। सा भणिया जिणसुत्ते तवम्मि आराहणा णूणं॥ अर्थात् बारह प्रकार के तपश्चरण में जो अपनी शक्ति के अनुसार उद्यम करता है, निश्चय से उसे जिनसूत्र (जिनागम) में तप आराधना कहा है। __ 'ससत्तीए' शब्द से आचार्य देवसेन स्वामी का यह आशय है कि अपनी शक्ति / के अनुसार किया गया तप सार्थक है। इसमें न अपनी शक्ति से ज्यादा न अपनी शक्ति . से कम, अन्यथा मन में अमंगल का विचार आये जिससे तप बोझ लगने लगे ऐसा तप व्यर्थ है, अथवा तप ऐसा हो जिससे इन्द्रियों को हानि न पहुँचे तथा योग भी नष्ट न हो। इसी से सम्बन्धित विषय बौद्धधर्म में 'मध्यम प्रतिपदा' अर्थात् मध्यम मार्ग (बीच का रास्ता) कहा जाता है। किसी भी वस्तु में अत्यधिक तल्लीनता अथवा उससे अत्यधिक वैराग्य दोनों ही अनुचित है। इसलिये आचार्यों ने शक्तिस्तप का विधान किया है। उदाहरणार्थ अधिक भोजन करना भी कष्टप्रद है और बिल्कुल भी भोजन नहीं करना। अतः अनुकूलता दोनों के बीच में है। उपरोक्त कथन के अनुसार यह स्पष्ट होता है कि जहाँ बौद्धदर्शन सदैव मध्यम मार्ग में स्थित रहने को उचित कहता है वहीं जैनदर्शन तप को सामर्थ्य के अनुरूप धारण करने और उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि का संकेत करता है। वस्तुतः तप को इस प्रकार धारण करना चाहिये जिससे मन अमंगल का विचार न करे, इन्द्रियों की हानि न हो तथा जिससे योग नष्ट न हो इसलिये तप का मापदण्ड स्थापित 214 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org