________________ व्यक्ति व्यवहारमार्ग में प्रवेश किये बिना निश्चयमार्ग को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि आभा के विकास को देखे बिना कौन विवेकी मुनष्य सूर्योदय को कहता है? अर्थात् कोई भी नहीं कहता। जिस प्रकार सूर्य की प्रभा का विकास दिखता है तत्पश्चात् सूर्य के दर्शन होते हैं, उसी प्रकार पहले व्यवहार आराधना का पालन होता है उसके बाद निश्चय आराधना का पालन होता है। तात्पर्य यह है कि न तो मात्र व्यवहार ही मुक्ति का हेतु है न मात्र निश्चय ही। एकान्त का पोषण सदैव कार्य के असफल होने में निमित्त है। जिस प्रकार रथ के चलने में दोनों चक्र सहायक होते हैं उसी प्रकार आत्मा रूपी रथ के गमन में ध्यवहार एवं निश्चय रूपी चक्र सहायक हैं। अत: मिथ्या एकान्त मत का त्याग और अनेकान्त का धारण करना ही भव्यजीवों को निश्चित रूप से श्रेयस्कर है। . वर्तमान में कई धर्माधिकारी हैं जो या तो मात्र व्यवहार का पोषण करते हैं या फिर निश्चय का बिगुल बजाते हैं, किन्तु अनेकान्तमयी जिनधर्म के रहस्य को समझने वाले दोनों ही पक्षों का महत्त्व समीचीन रूप से जानते हैं। वस्तुतः किसी भी एक पक्ष को सशक्त नहीं कह सकते, क्योंकि दोनों का समीचीन प्रयोग ही लक्ष्य प्राप्ति के लिये उपयोगी साबित होता है। सापेक्ष कथन से तात्पर्य है किसी भी प्रसंग अथवा विषय का विश्लेषण मुख्यतया दो दृष्टियों को ध्यान में रखकर करना, व्यवहार दृष्टि और निश्चय दृष्टि। जहाँ व्यवहार दृष्टि में विषय-वस्तु को भेद-प्रभेद पूर्वक प्रस्तुत किया जाता है वहीं निश्चय दृष्टि में भेद-प्रभेदों को समाविष्ट करके एकरूपता प्रदान की जाती है। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इन्हें पृथक्पृथक् रूप में महत्त्व देने वाले को कभी भी मोक्षमार्गी (मुमुक्षु) नहीं माना है बल्कि जो इन्हें परस्पर पूरक मानता है वही मुमुक्षु है। व्यवहार साधन है और निश्चय साध्य। बिना साधन के साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती और साधन को ही पकड़े रहने से भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती और मात्र साध्य का चिन्तन करने से भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। व्यवहार का आश्रय लेकर निश्चय तक पहुँचा जाता है। यही आचार्य का मन्तव्य है। अतः दोनों की ही उपयोगिता सिद्ध होती है। 2. निश्चय आराधना - व्यवहार आराधना जो कि निश्चय आराधना की कारण (हेतु) है, उसका कथन करने के पश्चात् अब आचार्य देवसेन स्वामी निश्चय आराधना का स्वरूप कहते हैं 207 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org