________________ सुद्धणये चउखधं उत्तं आराहणाइ एरिसियं। सव्ववियप्पविमुक्को सुद्धो अप्पा णिरालंबो।' अर्थात् शुद्ध निश्चयनय से यह आत्मा सभी विकल्पों से रहित, इन्द्रिय-विषयों के अवलम्बन को छोड़कर आलम्बन रहित होकर शुद्ध आत्मा की आराधना करता है, उसे ही चार प्रकार की आराधना कहा है। यहाँ आचार्य का तात्पर्य यह है कि शुद्ध निश्चयनय से आत्मा में कर्म-कर्ता, राग द्वेष आदि कोई विकल्प नहीं है। अतः आत्मा सर्व विकल्पों से रहित है। आत्मा कर्म-कलंक से रहित है अतः शुद्ध है। निश्चय नय से आत्मा पञ्चेन्द्रियों के विषयव्यापार और तत्सम्बन्धी सुखाभिलाषाओं से रहित है, इसीलिये वह निरालम्ब है। निश्चय नय से चित् चमत्कार, अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्यरूप अनन्त चतुष्टय का धारी आत्मा है, उसमें रमण करना ही चार प्रकार की आराधना है। इसी निश्चय आराधना की अन्य विशेषताओं को प्रतिपादित करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं इसमें यह जीव अपने स्वभाव अर्थात् शुद्धात्मा का श्रद्धान करता है, अपने आप में आत्मा को जानता है और इन्द्रिय विषयों को संकुचित कर उसी शुद्धात्मा में अनुचरण करता है। यहाँ आचार्य का आशय यह है कि जब यह संसारी आत्मा परमात्म स्वरूप निज शुद्ध आत्मा का श्रद्धान करता है, प्रतीति करता है, दृढ विश्वास करता है कि मैं सिद्ध स्वरूप हूँ, द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से वास्तव में सिद्ध में और मुझमें कोई अन्तर नहीं है, ऐसी दृढ़ प्रतीति होती है, वह आन्तरिक होती है मात्र वचनात्मक नहीं तब उसे सम्यग्दर्शन आराधना कहते हैं। जब निज शुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान होता है, शुद्धात्मा को जानता है वह ज्ञानाराधना कहलाती है और जब पञ्चेन्द्रियों के विषयों की अभिलाषाओं का त्याग करके अपने निज शुद्ध रूप में रमण करता है, वही चारित्र और तप आराधना है। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि चारित्र में तप कैसे गर्भित हो सकता है? इसका उत्तर स्पष्ट करते आचार्य कहते हैं कि पाँचों इन्द्रियों के विषयों का त्यागकर अपने में रमण आराधनासार गा. 8 आराधनासार गा.9 208 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org