________________ पर मुक्ति की प्राप्ति होना असंभव है। अतः सम्यक् पद की योजना करने से इनकी परिभाषा में असाधारण परिवर्तन हो जाता है। सम्यक् पद के जुड़ने से दर्शन आदि समीचीनता को प्राप्त हो जाते हैं। आचार्य देवसेन स्वामी ने आराधना के दो भेद नय की विवक्षा से किये हैं - व्यवहार आराधना और निश्चय आराधना। जो वस्तु के स्वरूप को अभिन्न/अखण्ड/अपृथक् रूप में ग्रहण करता है वह निश्चय नय है और जो वस्तु के स्वरूप को गुण-गुणी के भेद से सहित ग्रहण करता है वह व्यवहार नय है। व्यवहार नय में गुण-गुणी भेद रहता है, इसलिये आत्मा (गुणी) के सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप ये चार गुण हैं और इन्हीं के अवलम्बन से आत्मा गुणी कहलाता है। इसी विवक्षा को ध्यान में रखकर सम्यग्दर्शनादि को चार आराधना कहा है, परन्तु निश्चय नय में गुण-गुणी का अभेद होने से विकल्प समाप्त हो जाते हैं इसलिये शुद्ध परमात्मा की स्तुति ही आराधना 1. व्यवहार आराधना - व्यवहार नय की अपेक्षा से आराधना का स्वरूप प्ररूपित करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि ववहारेण य सारो भणिओ आराहणाचउक्कस्स। दंसणणाणचरित्तं तवो य जिणभासियं णणं।' अर्थात् निश्चय से जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तप व्यवहार नय से चार आराधनाओं का सार कहा गया है। ___ यहाँ आचार्य देवसेन स्वामी का आशय यह है कि जिनेन्द्र भगवान् ने दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप का जैसा स्वरूप प्रतिपादित किया है उसके अनुरूप आचरण करना व्यवहार नय की अपेक्षा चारों आराधनाओं का सार है। व्यवहार नय में भेददृष्टि से कथन होता है इसलिये यहाँ आराधना के चार भेदों का कथन है। प्रमादरहित होते हुए व्यवहार आराधना की अच्छी तरह आराधना अर्थात् उपासना करना चाहिये, क्योंकि इसके बिना निश्चयनय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। वस्तुतः आराधनासार गा.3 206 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org