SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारण जो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन रूप योग है. उससे रहित चौदहवें गणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं।' आचार्य देवसेन स्वामी ने अयोग केवली के स्वरूप को विशेष रूप से अपने भावसंग्रह ग्रन्थ में उल्लिखित किया है। आचार्य लिखते हैं कि - सयोग केवली गुणस्थान के पश्चात् चौदहवें गुणस्थान में आकर अघातिया कर्मों का क्षय करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं। इस गुणस्थान का काल लघुपञ्चाक्षर के उच्चारण मात्र है।' अर्थात् यहाँ आचार्य के कथन का आशय यह है कि वचनबल ऋद्धि के धारक मुनिराज जो अन्तर्महर्त में सम्पूर्ण द्वादशांग का पाठ कर लेते हैं ऐसे मुनिराज जितने समय में अ, इ, उ, ऋ, लु इन पाँच लघु अक्षरों का उच्चारण करते हैं उतना समय चौदहवें गुणस्थान का होता है। इस गुणस्थान में कैसी स्थिति होती है? यह बताते हुए आचार्य कहते हैं कि इस गुणस्थान में समस्त क्रियाओं की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है तथा चौथा शुक्ल ध्यान जो कि व्युपरत क्रिया निवर्ति नाम का है, होता है। इस गुणस्थान में क्षायिक और शुद्ध भाव होते हैं, इसीलिये वे भगवान् निरञ्जन और परम वीतरागी कहे जाते हैं। इस गुणस्थान के अन्त में उनका वह परमौदारिक शरीर शिथिल होकर गल जाता है, कई आचार्य ऐसा मानते हैं कि उनका परमौदारिक शरीर कपूर की भाँति उड़ जाता है तथा उनके घनीभूत निविड आत्मा के प्रदेश शुद्ध स्वभाव रूप होकर रह जाते हैं। इस प्रकार वे भगवान् परमात्मा हो जाते हैं।' इस गुणस्थान में चौथे शुक्लध्यान के द्वारा 85 कर्म प्रकृतियों का नाश होता है। इस गुणस्थान के उपान्त्य समय में 72 प्रकृतियों का और अन्तिम समय में 13 प्रकृतियों का क्षय होता है। समस्त कर्मों का नाश होते ही जीव मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। ___ इस गुणस्थान में ध्यान के विषय में आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार का ध्यान सयोग केवली के होता है, उस प्रकार का भी ध्यान इसमें नहीं होता है। इस गुणस्थान में वास्तव में ध्यान होता ही नहीं है। इसमें तो भूतार्थनय की अपेक्षा से उपचार से ध्यान वृ. द्र. सं. टीका 13 भा. सं. गा. 679 भा. सं. गा. 681 भा. सं. गा. 680 186 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy