________________ * इस गुणस्थान में 42 प्रकृतियों का उदय तथा 85/84 प्रकृतियों की सत्ता होती है। * सातावेदनीय कर्म का बंध एवं योग सद्भाव यहीं तक है। इस गुणस्थान में किसी भी कर्म का क्षय नहीं होता। * इस गुणस्थान में 30 प्रकृतियों को उदय व्युच्छित्ति होती है। * कायबल, वचनबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण ही होते हैं। * शरीर नामकर्म का उदय इसी गुणस्थान तक है। अन्तिम शरीर से कुछ कम जो सिद्धों की अवगाहना है वह इसी गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाती है। * शरीरघाती उपसर्ग किन्हीं मुनि के हो और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाय तो नियम से वे अन्तकृत केवली कहलाते हैं, और अन्तर्मुहुर्त बाद उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। 14. अयोग केवली गुणस्थान . इस गुणस्थान का पूर्ण नाम 'अयोग केवली' है। योग से रहित होने से अयोग तथा केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने से केवली संज्ञा प्राप्त होती है। जो योगरहित होते हुए केवली होता है उसे अयोग केवली कहा गया है।' अयोग केवली का स्वरूप बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि - जो अट्ठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, जो आस्रवों से रहित हैं, जो नूतन बंधने वाले कर्मरज से रहित हैं और जो योग से रहित हैं तथा केवलज्ञान रूपी सर्य से सहित हैं, उन्हें अयोगी परमात्मा कहा जाता है। और विशेषतायें बताते हए आचार्य कहते हैं कि - जिनके पुण्य और पाप के संजनक अर्थात् उत्पन्न करने वाले शुभ और अशुभ योग नहीं होते हैं वे अयोगी जिन कहलाते हैं, जो कि अनुपम और अनन्तगुणों से सहित हैं। और अधिक सरल और स्पष्ट भाषा में व्यक्त करते हुए ब्रह्मदेव सरी लिखते हैं कि - मन, वचन, काय वर्गणा के अवलम्बन से कर्मों के ग्रहण करने में रा. वा. 9/1/24 प्रा. पं. सं. 1/30, ध. 1/21, गो. जी. का. गा. 65 जेसिं ण संति जोगा, सुहासुहा पुण्णपापसंजणया। ते होंति अजोइजिणा, अणोवमाणंतगुणकलिया।। प्रा. पं. सं. अ. 1/100 185 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org