________________ चारित्र मोहनीय के क्षय या उपशम का विशेष उपक्रम यहीं से प्रारम्भ होता है। यहाँ से ही उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी का प्रारम्भ होता है। इन दो प्रकार की श्रेणियों का स्वरूप द्रष्टव्य है उपशम श्रेणी - चारित्र मोहनीय कर्म की शेष 21 प्रकृतियों का उपशम करने के लिये किया जाने वाला आरोहण उपशम श्रेणी कहलाता है। इसमें साधक मोहनीय कर्म का समल नाश नहीं कर पाता अपितु उसे दमित करता हुआ अर्थात् दबाता हुआ आगे बढ़ता जाता है। जिस प्रकार शत्रुसेना को खदेड़कर की गई विजय यात्रा राज्य के लिये अहितकर होती है, क्योंकि वह कभी भी समय पाकर राज्य पर पुनः आक्रमण कर सकता है। उसी प्रकार इस विधि से प्रथमावस्था को प्राप्त कर्म शक्ति भी समय पाकर आत्मा का अहित कर सकती है। कर्मों के उपशमजन्य अल्पकालिक विशुद्धि के कारण आत्मा में स्वच्छता तो आ जाती है, लेकिन मोह का उदय हो जाने के कारण अपनी उपरिम भूमिका से फिसलकर जीव नीचे गिर जाता है। इस श्रेणी के गुणस्थान आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ तथा ग्यारहवाँ हैं। ग्यारहवें गुणस्थान तक जाकर कर्मों के पुनः प्रकट हो जाने से अनिवार्यतः उसका पुनः पतन हो जाता है। क्षपक श्रेणी - क्षपक श्रेणी का अर्थ है - चारित्र मोहनीय कर्म की शेष 21 प्रकृतियों के क्षय के लिये किया जाने वाला आरोहण। जो साधक अपनी विशुद्धि के बल पर चारित्र मोहनीय कर्म का समूल विच्छेद करते हुए आगे बढ़ते हैं वे क्षपक श्रेणी वाले कहलाते हैं। इसमें कर्म शत्रुओं का उपशम नहीं होता अपितु समूल विध्वंस कर दिया जाता है। इसी कारण ये पुनः जागृत नहीं हो पाते। इस श्रेणी वाले साधकों का अधः पतन नहीं होता है। इस श्रेणी के गुणस्थान क्रमशः आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ और बारहवाँ। क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने वाले साधक अपना आत्मिक विकास करते हुए समस्त कर्मों का समूल नाश करके, अन्त में सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। इन श्रेणियों के कारण इस गुणस्थान के भी दो भेद हो जाते हैं। उपशम श्रेणी वाला चारित्र मोहनीय का उपशम करके तथा क्षपक श्रेणी वाला क्षय करके परिणाम की अपूर्वता को प्राप्त करता हुआ, इस गुणस्थान को प्राप्त करता है। भावसंग्रह गा. 642 161 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org