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________________ जात्पर्य यह है कि नाना जीवों की अपेक्षा आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हए संख्यात लोक प्रमाण परिणाम वाले इस गुणस्थान के अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवों को छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। इसी विषय के सन्दर्भ में आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि - इस गुणस्थान में विसदश अर्थात् भिन्न-भिन्न समय में रहने वाले जीव जो पूर्व में कभी भी प्राप्त नहीं हुए . थे. ऐसे अपूर्व परिणामों, को ही धारण करते हैं। इसलिये इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है।' इस गुणस्थान के सर्वकाल में भिन्न समयों में स्थित जीवों के परिणाम सदृश अर्थात् समान नहीं होते किन्तु एक ही समय में स्थित जीवों के परिणाम सदश भी होते हैं और विसदृश भी होते हैं। जिस गुणस्थान में अपूर्व अर्थात् पूर्व में अननुभूत आत्मशुद्धि का अनुभव होता है। यहाँ पर भी चार आवश्यक कार्य होते हैं जो निम्न हैं अनुभागखण्डन, स्थितिखण्डन, गुणसंक्रमण और असंख्यात गुणश्रेणि निर्जरा।' अनुभागखण्डन - सत्ता में स्थित कर्मों के अनुभाग को समूह रूप से घटाना अनुभागखण्डन कहलाता है। स्थितिखण्डन - सत्ता के कर्मों की स्थिति को समूह रूप से घटाना (कम करना) स्थितिखण्डन है। गुणसंक्रमण - सत्ता के कर्मों के प्रदेश प्रथम समय में जितने अन्य सजातीय कर्मरूप किये, उनसे अधिक गुणाकार रूप से दूसरे-तीसरे आदि समयों में संक्रमित करते जाना गुणसंक्रमण कहलाता है। असंख्यात गुणश्रेणि निर्जरा - सत्ता के कर्मों की प्रथम समय में जितनी निर्जरा हुई, उससे अधिक गुणाकार रूप से दूसरे आदि समयों में कर्म निर्जरा होते जाना असंख्यात गुणश्रेणि निर्जरा कहलाती है। ध. 1/117, गो. जी. गा. 51 ध. 1/1,1,16/116, गो. जी. गा. 52 ल. सा. गा. 53-54, ध. 6/224, 227, क्ष. सा. 397, गो. जी. 54 160 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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