________________ स्वस्थान अप्रमत्त विरत - जो मुनि सातवें से छठवें में, फिर सातवें में आकर गिरते हैं पुनः चढ़ते हैं उन्हें स्वस्थान अप्रमत्त विरत कहते हैं। इसका दूसरा नाम निरतिशय अप्रमत्त विरत है। (ii) सातिशय अप्रमत्त विरत - उपशम श्रेणी अथवा क्षपक श्रेणी माड़ने के सम्मुख हुआ जीव जो नियम से अष्टम गुणस्थान को प्राप्त करेगा उसे सातिशय अप्रमत्तविरत कहते हैं। इसका दूसरा नाम अध:करण प्रवृत्त भी है। * अन्त के तीन संहननों का उदय इसी गुणस्थान तक है। * वर्तमान पंचमकाल में ये तीन संहनन ही पाये जाते हैं, इसलिये मुनिगण श्रेणी नहीं माड़ सकते। * इस गुणस्थान में 61 प्रकृतियों का बंध नहीं होता है एवं 46 प्रकृतियाँ अनुदय योग्य कही गयी हैं। * यह जीव यदि क्षायिक सम्यक्त्वी है तो इसके 9 प्रकृतियों का सत्व नहीं होता है। वे 4 अनंतानुबंधी, 3 मिथ्यात्वादि, नरकायु एवं तिर्यञ्चायु हैं। * प्रथमोपशम सम्यक्त्वी जीव यहीं तक जाते हैं, आगे नहीं। * द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद यह जीव हजारों बार 6वें 7वें गुणस्थान को प्राप्त कर फिर सातिशय अप्रमत्ती होता है। * क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी के नरकायु एवं तिर्यञ्चायु का सत्त्व नहीं होता है। * छठवें गुणस्थान की अपेक्षा इस गुणस्थान में जीवों की संख्या आधी है। 8. अपूर्वकरण गुणस्थान इस गुणस्थान का पूर्ण नाम 'अपुव्वकरण पविट्ठसुद्धि संजद' है। इसको लघु रूप से 'अपुव्वकरण' कहा जाता है। इस गुणस्थान का शाब्दिक दृष्टि की अपेक्षा से अर्थ प्रकट करते हुए राजवार्तिककार आचार्य अकलंक स्वामी कहते हैं कि - करण शब्द का अर्थ है परिणाम और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं।' इसका रा. वा. 9/1/13, ल. सा. 51, ध. 1/180 159 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org