________________ इस गुणस्थान में होने वाले प्रमाद जो हैं वे आचार्यों ने 15 बताये हैं। जिनमें भाविकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और प्रणय होते हैं।' संयम की विरोधी वा जिनके सनने एवं कहने से पाप का ही बन्ध होता है उनको विकथा कहते हैं। वे जकथा, भोजकथा, स्त्रीकथा और चौरकथा हैं। जो संयम का घात करती हैं उन्हें कषाय कहते हैं। ये क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन्द्रिय के विषयों में रागादि भाव होना इन्द्रियरूप प्रमाद है। निद्रा, प्रचला आदि दर्शनावरण कर्म के उदय से जो जोड्य अवस्था होती है वह निद्रा कहलाती है। ममत्व भाव होना, हंसी आदि की तीव्रता होना प्रणय कहलाता है। इन्हीं प्रमादों के कारण चारित्र की अत्यन्त शद्धता नहीं होती। प्रमादों के कारण उनमें दोष अथवा अशुद्धि उत्पन्न हो ही जाती है। इसलिये यहाँ चित्तल आचरण कहा गया है। इस गुणस्थान में आर्तध्यान और धर्म्यध्यान सम्भव हैं। रौद्रध्यान सिर्फ 1-5 गुणस्थानवी जीवों के ही होते हैं। आर्तध्यान में भी प्रारम्भ के तीन ही भेद होते हैं, चौथा निदान नामक आर्तध्यान नहीं होता। यदि ऐसा होता है तो मुनिराज का छठा गुणस्थान छुट जाता है। मुनियों के कभी-कभी नोकषाय के उदय आ जाने से उनके आर्तध्यान हो भी जाता है तो वे मुनिराज अपने आवश्यकों आदि को पूर्ण रीति से पालन करके उस स्वल्प आर्तध्यान से उत्पन्न हुए कर्मों को अथवा उनके प्रभाव को वहीं अवरुद्ध कर देते हैं अथवा नष्ट कर देते हैं। इसके अलावा वे मुनि उस आर्तध्यान के कारण अपनी निन्दा, गर्दा आदि करते रहते हैं और प्रतिक्रमणादि करते रहते हैं। इस गुणस्थान में जो 'संयत' पद है वह आदि दीपक है अर्थात् इस गुणस्थान से लेकर 14वें गुणस्थान तक के सभी जीव संयत ही होंगे। संयत से यह अभिप्राय है कि वे दिगम्बर जैन मुनि सकल संयम से सहित ही होंगे। श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, यति, भदन्त, दान्त ये सभी एकार्थवाची हैं। इस गुणस्थान की एक विशेषता यह है कि यह गुणस्थान सदैव अवरोहण क्रम में बनता है अर्थात् कोई भी मिथ्यादृष्टि (सादि या अनादि) तीनों सम्यक्त्व से सहित पं. सं. प्रा. 1/15, रा. वा. 8/1/30, भ. आ. वि. 612/812, ध. 1/4, गा.114, गो. जी. का. गा. 34, भा. स. गा. 602 र. सा. 110-111, ज्ञा. 26/41, भा. स. गा. 603 151 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org