________________ इसी प्रमत्त संयत का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य अकलंक स्वामी लिखते कि - उस संयम लब्धि रूप आभ्यन्तर संयम परिणामों के अनुसार बाह्य साधनों के निधान को स्वीकार करता हुआ प्राणिसंयम और इन्द्रिय संयम को पालता हुआ भी पन्दह प्रकार के प्रमादों के वश कहीं कभी चारित्र परिणामों से स्खलित होता रहता है, अतः वह प्रमत्तसंयत कहलाता है। व यहाँ कोई प्रश्न करता है कि प्रमत्तता और संयतपना दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैं. क्योंकि ये दोनों एक दूसरे के बाधक हैं? इसका उत्तर देते हुए आचार्य वीरसेन स्वमी लिखते हैं कि पाँचों पापों से विरतिभाव को संयम कहते हैं जो कि तीन गुप्ति और पाँच समितियों से अनुरक्षित हैं। वह संयम वास्तव में प्रमाद से नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि संयम में प्रमाद से केवल मल की ही उत्पत्ति हो सकती है। वहाँ होने वाला स्वल्पकालवर्ती मन्दतम प्रमाद संयम का नाश नहीं कर सकता, क्योंकि सकल संयम का उत्कट रूप से प्रतिबन्ध करने वाले प्रत्याख्यानावरण के अभाव में संयम का नाश नहीं पाया जाता। संयम की अपेक्षा यहाँ क्षायोपशमिक भाव है, क्योंकि वर्तमान अवस्था में प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय होने से और उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होने से तथा संज्वलन कषाय के उदय से संयम उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व की अपेक्षा तो इसमें उपशम, क्षय और क्षयोपशम ये तीनों भाव सम्भव है। यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि इनके कारण इसमें तीनों भावों को ग्रहण करना चाहिये ना कि क्षायोपशमिक भाव अकेला ही ग्रहणीय है? तब इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि - दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमादि से संयमासंयम आदि भावों की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि यहाँ सम्यक्त्व विषयक कोई भी प्रश्न उपस्थित नहीं होता रा. वा. 9/1/17/590 ध. 1/176 वही ध. 51203 150 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org