________________ * पंचम गुणस्थानवी जीव के नरकायु का सत्त्व नहीं होता है। भुज्यमान तिर्यञ्चायु की अपेक्षा तिर्यञ्चों में तिर्यञ्च आयु का सत्त्व होता है। * विजयार्द्ध पर्वत पर विद्याधर अपनी विद्याओं सहित पंचम गुणस्थान तक ही जा सकते हैं ऊपर नहीं। * स्वयम्भूरमणद्वीप का बाहरी आधा भाग एवं स्वयम्भूरमण समुद्र में स्थित तिर्यञ्चों के पंचम गुणस्थान तक सम्भव हैं। * पंचम गुणस्थानवी मनुष्यों के भुज्यमान की अपेक्षा मनुष्यायु एवं बध्यमान की अपेक्षा देवायु का सत्त्व होता है अन्य नहीं। * पंचम गुणस्थानवी जीव 53 प्रकृतियों का अबंधक होता है एवं 35 प्रकृतियाँ अनुदय योग्य होती हैं। * जो संयत होते हुए भी असंयत है उसे संयतासंयती कहते हैं। * इस गुणस्थान में 11 अविरति एवं 1 विरति होती है। * इस गुणस्थान में क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी एवं अप्रत्याख्यानावरण / का अनुदय होता है एवं प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन तथा यथायोग्य नव नोकषायों का उदय होता है। 6. प्रमत्तविरत गुणस्थान इस गुणस्थान का नाम ‘पमत्तसंजदा' है। इस गुणस्थान का नाम ‘पमत्तविरदो' भी है। संजद और विरद ये दोनों शब्द अनर्थान्तर अर्थात् अन्य अर्थ वाले न होकर एक ही अर्थ के द्योतक हैं। प्रमाद सहित महाव्रती साधु को प्रमत्त-विरत या प्रमत्तसंयत कहते हैं। पाँचों पापों का सम्पूर्ण रूप से त्याग होने से संयत और प्रमाद के होने से इन्हें प्रमत्त कहते हैं। यह प्रमाद संज्वलन कषाय की तीव्रता में होता है। यह गुणस्थान प्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय होने से प्राप्त होता है, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण कषाय ही सकल संयम की घातक प्रकृति है और उसका उदय न होने से सकल संयम प्रकट हो जाता है। संज्वलन कषाय का उदय होने से यथाख्यात चारित्र नहीं हो पाता, इसी के कारण से ही सकल संयम 148 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org