________________ इन्होंने प्रमाण और दर्शन सम्बन्धी शास्त्र लिखे। आप्तपरीक्षा आदि स्वतन्त्र कृतियाँ हैं एवं अष्टसहस्री आदि टीका ग्रन्थ हैं। इस प्रकार इन शताब्दियों में जैन साहित्य का विकासकाल प्रारम्भ हो चुका था। यद्यपि साहित्य की इस युग में सृजनात्मक गति द्रुत नहीं थी फिर भी सर्वाङ्गीण विकास एवं आकार की दृष्टि से विशालकाय ग्रन्थों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। साहित्य . सजन की यह धारा 9वीं-10वीं शती तक विकास को पूर्णरूपेण प्राप्त हो चुकी थी तथा इन शताब्दियों में लिखे गये काव्य-ग्रन्थों को जैनसाहित्य के प्रतिनिधि ग्रन्थों के रूप में जाना जाता है। इसलिए यह युग जैनकाव्य साहित्य सृजन का 'स्वर्णयुग' माना जाता है। इसी स्वर्ण युग में भारतीय जैनसाहित्य में 10वीं शताब्दी के आचार्य देवसेन प्राकत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के उद्भट विद्वान हुए। आचार्य देवसेन स्वामी का व्यक्तित्व व्यक्तित्व - आचार्य देवसेन स्वामी के जन्मस्थान, जन्मतिथि, माता-पिता आदि का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। आचार्य देवसेन प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के महान् विद्वान थे। जिनागम प्रचलित नय परम्परा के अच्छे जानकार तथा उनका सामंजस्य बैठाने , .. वाले थे। यह महाराज अक्खड़ प्रकृति के प्रतीत होते हैं, क्योंकि 'दर्शनसार' की अन्तिम गाथा से इनकी अक्खड़ प्रकृति का ज्ञान होता है, जो निम्न है रूसउ तूसउ लोओ सच्चं अक्खंतयस्स साहुस्स। किं जूयभए साडी विवज्जियव्वा णरिंदेण॥51।। अर्थात् सत्य कहने वाले साधु से चाहे कोई रुष्ट हो और चाहे सन्तुष्ट हो। उसे परवाह नहीं। क्या राजा को जओं के भय से वस्त्र पहिनना छोड देना चाहिए? अर्थात कभी नहीं। अपना अत्यन्त संक्षिप्त परिचय देते हुए इन्होंने 'दर्शनसार' ग्रन्थ के अन्त में दो गाथायें लिखी हैं पुव्वायरियकयाइं गाहाइं संचिऊण एयत्थ। सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसत्तेण।49।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org