SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रइओ दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए। सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धे महासुद्धदसमीए॥50।। अर्थात् श्री देवसेनगणि ने माघसुदी 10 वि. सं. 990 को धारानगरी में निवास करते हुए पार्श्वनाथ मंदिर में पूर्वाचार्यों की बनाई हुई गाथाओं को एकत्र करके यह दर्शनसार नाम का ग्रंथ बनाया, जो भव्य जीवों के हृदय में हार के समान शोभा देगा। तत्त्वसार की प्रशस्ति में बताया है कि सोऊण तच्चसारं रइयं मुणिणाह देवसेणेण। जो सद्दिट्ठि भवइ सो णवइ सासयं सोक्ख।।4।। अर्थात् जो सम्यग्दृष्टि, मुनिनाथ देवसेन के द्वारा रचित इस तत्त्वसार को सुनकर उसकी भावना करेगा, वह शाश्वत सुख को पायेगा। आराधनासार के अन्त में लिखा है कि - ण य मे अत्थि ण मुणामो छंदलक्खणं किंपि। णियभवणाणिमित्तं इरयं आराहणासारं॥ अमुणियतच्चे इमं भणियं जं किंपि देवसेणेण। सोहतु तं मुणिंदा अस्थि हु जइ पवयण विरुद्धं॥ अर्थात् न मुझे कवित्व का ज्ञान है, न छन्द का, न व्याकरण का ही। अपनी भावना के निमित्त मैंने आराधनासार रचा है। पूर्ण तत्त्वज्ञान से अपरिचित आचार्य देवसेन ने जो कुछ भी इसमें कहा है यदि उसमें आगम विरुद्ध कथन हो तो मुनीन्द्र उसे शुद्ध कर लें। इनके गुरु का नाम आचार्य विमलसेन है। भावसंग्रह के अतिरिक्त अन्य किसी भी रचना में गुरु के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु प्रकारान्तर से गुरु के नाम का अध्याहार किया जा सकता है। यथा आराधनासार में - विमलयरगुणसमिद्धं सिद्धं सुरसेणवंदियं सिरसा। णमिऊण महावीरं वोच्छं आराहणासारं / / Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy