________________ प्राक्कथन अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास धाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम्। यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति तच्चानचारू कलिका निकरैक हेतुः॥ आदिब्रह्मा आदिनाथ की इसी प्रकार मरणपर्यन्त स्तुति करता रहूँ, ऐसी भावना है। शोधकार्य सदैव से ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं श्रमसाध्य कार्य रहा है। जयपुर के दिगम्बर जैन कॉलेज में पढ़ते हुए और सांगानेर के आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास में निवास करते हुए जब मैंने जैनदर्शन से आचार्य करके बी.एड. किया तब मेरे परम मित्र डॉ. आनन्द कुमार जैन ने मुझे शोधकार्य करने की प्रेरणा दी। उससे प्रेरित होकर मैंने भी इसके लिए मन बनाया। मित्र की निरन्तर प्रेरणा एवं उत्साह ने मुझे और अधिक मजबूती और दृढ़ता प्रदान की। उसने जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं का नाम प्रस्तावित किया और अवलोकन करने का सुझाव दिया। जैन विश्वभारती और विशाल वर्द्धमान ग्रन्थालय को देखकर मन प्रसन्न हो गया और निश्चय किया कि शोधकार्य यहीं करना है। डॉ. जिनेन्द्र कुमार जैन, सह आचार्य, प्राकृत एवं जैनागम विभाग से मिलने पर ज्ञात हुआ कि आचार्य देवसेन स्वामी की कृतियों पर कुछ विशेष कार्य नहीं हुआ। जब डॉ. जैन ने इनकी कृतियों में 'दार्शनिक दृष्टि' विषय का सुझाव दिया तो मैंने भी उसमें सहमति प्रकट की। इसप्रकार मैं जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय में प्राकृत एवं जैनागम विभाग जिसका अब संस्कृत एवं प्राकृत विभाग नाम हो गया है, में शोधकार्य से जुड़ा, जिसे आज पूर्ण करके शोध उपाधि हेतु विश्वविद्यालय को सौंपते हुए अत्यन्त हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध छः अध्यायों में विभक्त हैं। जो क्रमशः - प्रथम अध्याय : आचार्य देवसेन की कृतियों में तात्त्विक विवेचन द्वितीय अध्याय : आचार्य देवसेन की कृतियों में नयात्मक दृष्टि तृतीय अध्याय : आचार्य देवसेन की कृतियों में गुणस्थान विवेचन चतुर्थ अध्याय : आचार्य देवसेन की कृतियों में साधनापरक दृष्टि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org