________________ प्रकार, मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एकरूपता का अभाव है। अचेल परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और. आवश्यक मान्य रहे हैं। तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं में, धवला में तथा अंगपण्णत्ति में इनका उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि अंगपण्णत्ति में नन्दीसूत्र की भांति ही आवश्यक के छह विभाग किये गये हैं। यापनीय परम्परा में भी न केवल आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक मान्य रहे हैं, अपितु यापनीय आचार्य अपराजित (नौवीं शती) ने तो दशवैकालिक की टीका भी लिखी थी। 6 छेदसूत्र - छेदसूत्रों के अन्तर्गत वर्तमान में 1. आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) 2. कप्प (कल्प) 3. ववहार (व्यवहार), 4. निसीह (निशीथ), 5. महानिशीथ और 6. जीयकल्प (जीतकल्प)- ये छह ग्रन्थ माने जाते हैं। इनमें से महानिशीथ और जीतकल्प को श्वेताम्बरों की तेरापन्थी और स्थानकवासी सम्प्रदायें मान्य नहीं करती हैं। वे दोनों मात्र चार ही छेदसूत्र मानते हैं, जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय उपर्युक्त 6 छेदसूत्रों को मानता है। जहाँ तक दिगम्बर और यापनीय परम्परा का प्रश्न है उनमें अंगबाह्य ग्रन्थों में कल्प, व्यवहार और निशीथ का उल्लेख मिलता है। यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में न केवल इनका उल्लेख मिलता है, अपितु इनके अवतरण भी दिये गये हैं। आश्चर्य यह है कि वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मूलतः यापनीय परम्परा के प्रायश्चित सम्बन्धी ग्रन्थ 'छेदपिण्डशास्त्र में कल्प और व्यवहार के प्रामाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, निशीथ और जीतकल्प की ही मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं। 10 प्रकीर्णकइसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रन्थ माने जाते हैं - __ 1. चउसरण (चतुःशरण), 2. आउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), 3. ‘भत्तपरिन्ना (भक्तपरिज्ञा), 4. संथारय (संस्तारक), 5. तंडुलवेयालिय (तंदुलवैचारिक), 6. चंदवेज्झय (चन्द्रवेध्यक), 7. देविन्दत्थय (देवेन्द्रस्तव), 8. गणिविज्जा (गणिविद्या), 9. महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान) और 10. वीरत्थय प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 10 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org