________________ (वीरस्तव)। श्वेताम्बर सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करते हैं। यद्यपि मेरी दृष्टि में इनमें उनकी परम्परा के विरूद्ध ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इन्हें अमान्य किया जावे। इनमें से 9 प्रकीर्णकों का उल्लेख तो नन्दीसूत्र में मिल जाता है, अतः इन्हें अमान्य करने का कोई औचित्य नहीं है। हमने इनकी विस्तृत चर्चा आगम संस्थान, उदयपुर से प्रकाशित 'महापच्चक्खाण' की भूमिका में की है। जहाँ तक दस प्रकीर्णकों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यों में भी किंचित् मतभेद पाया जाता है। लगभग 9 नामों में तो एकरूपता है, किन्तु भक्तपरिज्ञा, मरणविधि और वीरस्तव- ये तीन नाम ऐसे हैं, जो भिन्न-भिन्न रूप से आये हैं। किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर मरणविधि का उल्लेख किया है, तो किसी ने उसके स्थान पर वीरस्तव का उल्लेख किया है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने 'पइण्णसुत्ताई के प्रथम भाग की भूमिका में प्रकीर्णक नाम से अभिहित लगभग 22 ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय से पइण्णसुत्ताइं नाम से दो भागों में प्रकाशित हैं। अंगविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी की ओर से हुआ है। ये बाईस निम्न ___1. चतुःशरण, 2. आतुरप्रत्याख्यान, 3. भक्तपरिज्ञा, 4. संस्तारक, 5. तंदुलवैचारिक, 6. चन्द्रवेध्यक, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणिविद्या, 9. महाप्रत्याख्यान, 10 वीरस्तव, 11. ऋषिभाषित, 12. अजीवकल्प, 13. गच्छाचार, 14. मरणसमाधी, 15. तित्थोगालिय, 16. आराधनापताका, 17. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 18. ज्योतिषकरण्डक, 19. अंगविद्या, 20, सिद्धप्राभृत 21. सारावली और 22. जीवविभक्ति। इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं, यथा- 'आउरपच्चक्खान' के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की कृति है। - इनमें से नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान- ये सात नाम पाये जाते हैं और कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति- ये दो नाम पाये जाते हैं। इस प्रकार प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श /11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org