________________ 12 उपांग - 1. उववाइयं (औपपातिक) 2. रायपसेणइजं (राजप्रसेनजित्क) अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीय), 3. जीवाजीवाभिगम, 4. पण्णवणा (प्रज्ञापना), 5. सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्तिः), 6. जम्बुद्वीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः), चंदपण्णति (चन्द्रप्रज्ञप्तिः), 8-12. निरयावलियासुयक्खंध (निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः), 8. निरयावलियाओ (निरयावलिकाः) 9. कप्पवडिंसियाओ (कल्पावतंसिकाः) 10. पुफियाओ (पुष्पिकाः), 11. पुप्चूलाओ (पुष्पचूलाः), 12. वण्हिदसाओ (वृष्णिदशाः)। जहाँ तक उपर्युक्त अंग और उपांग ग्रन्थों का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं, जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय इन्हीं ग्यारह अंगसूत्रों को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि अंगसूत्र वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं। उपांगसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों में एकरूपता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में बारह उपांगों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं। साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद के परिकर्म विभाग के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था। 4 मूलसूत्र - सामान्यतया 1. उत्तराध्ययन, 2. दशवैकालिक, 3. आवश्यक और 4. पिण्डनियुक्ति -ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता नहीं है। जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एकमत से मूलसूत्र माना है। समयसुन्दर, भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्य विद्वानों में प्रो. ब्यूहलर, प्रो. शारपेन्टियर, प्रो. विन्टर्नित्ज़, प्रो. शुबिंग आदि ने एक स्वर से आवश्यक को मूलसूत्र माना है, किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। ये दोनों सम्प्रदाय आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार. को मूलसूत्र मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। इस . प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 09 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org