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________________ मुक्ति स्त्री मिलते ही उनके प्यार के कारण आकर्षित होकर आप मेरी प्रीत को निभा न पाये। इसमें यह सही है कि प्रीत करना आसान है, निभाना दुष्कर-इस पंक्ति से यह अर्थ निकलता है। किन्तु इनका रहस्य कुछ अलग ही है-राजीमती को उनकी सखियों ने जब दूसरा वर चुनने को कहा तब उन्होंने उन सखियों को धुत्कारा था, यही स्थिति राजीमति का नेमनाथ स्वामी के प्रति अनहद प्रेम की निशानी है। ऐसा प्यार करने वाले आर्य देश की नारी जीवन में एक पति करने के बाद कभी दूसरे पति की बात भी सुन नहीं सकती है। जैसे गर्भिणी अवस्था में सीताजी को राम ने जंगल में छोड़ दिया था, सीता का जंगल में त्याग किया था तब सीताजी ने राम को कहा था कि मुझे छोड़ दिया, उसका मुझे कोई दुःख नहीं है क्योंकि मेरे से भी अच्छी पत्नी आपको मिल जायेगी, इससे मेरे बिना भी आपका मोक्ष अटकने वाला नहीं है, ऐसे ही लोकवचन से आपने मेरा त्याग किया, यहां तक तो ठीक है, पर जैन धर्म को मत छोड़ना, क्योंकि जैन धर्म को छोड़ने के बाद इससे अच्छा क्या, पर ऐसा ही धर्म वापस नहीं मिलेगा तो जैनधर्म के बिना अपना मोक्ष अटक सकता है। वैसे ही यहां पर राजीमति ने देखा कि नेमीनाथ स्वामी मेरे पर नव नव भव के स्नेह को छोड़कर मुक्ति के प्रति निश्चित राग वाले या मोहित बने हैं तो मुझे उनको सावधान कर देना चाहिए। मुक्ति का राम अर्थात् मोक्षरूचि वो सामान्य चीज नहीं है। यहां प्रश्न हो सकता है कि क्या नेमिनाथ भगवान नहीं समझते होंगे? किन्तु वफादरन एवं प्रेमी स्नेहियों का दिल ऐसा ही होता है तब उनको जाण है तो भी सावधान करने के लिए कहना पड़ता है। इसी आशय से राजीमति ने कहा कि हे स्वामी! आपने अनन्त सिद्ध ऐसे पति कंधे रखने वाली मुक्ति के साथ प्यार किया तो भले किया किन्तु इस बात का भी ध्यान रखना कि मुक्ति की प्रीत करना सरल है किन्तु निभाना दुष्कर है। मेरे पर तो फिर भी प्रीत करना सरल है, निभाना सरल है। हमारे साथ प्रीति करके अगर आपसे गलती हो जाए, आप अधीर हो जाएं, विश्वास भंग हो जाये तो भी हम आपको छोड़ने वाले नहीं हैं पर वो मुक्ति तो ऐसी है कि अगर आप कोई भव में, अभिवंदन में, आनन्द में, आसक्त हो गये तो वो आपको छोड़ देगी। अगर आप नाराज हो जायेंगे तो वो भी नाराज हो जायेगी। मुक्ति की प्रीति को अखण्ड रखना हो तो भवनिर्वेद विषय, विराग एवं धर्म संवेग को जागृत रखना पड़ेगा। इसलिए महर्षियों ने भी प्रार्थनासूत्र जयवीयराय में कहा है-भवनिव्वओ। की इच्छा करते हैं। आगे राजीमति कह रही हैं कि जैसे झेरी सर्प के साथ खेलना, अग्नि के साथ खेलना, रमता नहीं है, वैसे ही मुक्ति का राग टिकाना मुश्किल है। इनके लिए तो जीवन भर सुख से भरे संसार को दूर रखना पड़ता है। इतना कहने के बाद भी जब राजीमति ने देखा कि नेमिनाथ वापस नहीं लौट रहे हैं, उनका मुक्ति के प्रीति तीव्र राग एवं मुक्ति के पास जाने की तैयारी को देखती है तो अंत में राजीमति अपना विचार जाहिर करती है कि आपने भले ही विवाह के अवसर पर मेरे हाथ पर आपका हाथ न रखा पर जब मैं दीक्षा लूंगी तब मेरे शिर पर हे नाथ! आपका हाथ रखाऊंगी। कितने गूढ़ रहस्य से भरी यह बात है। ऐसी कई बातें उपाध्यायजी ने अपने गुर्जर साहित्य में भी विवेचित की है। इस महान् विभूति को भर्तृहरि के शब्दों में कह सकते हैं कि अलंकरणं भुवं पृथ्वी के अलंकाररूप है एवं कवि भवभूमि के शब्दों में "जयति तेऽधिकं जन्मना जगत्" हे महात्मन आपके जन्म से यह जगत् जयवन्त है। इतना कहकर उपसंहार के रूप में उनका स्वरचित ज्ञानसार ग्रंथ का अन्तिम अष्टक में सर्व 37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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