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________________ नयों के आश्रित श्लोक एवं आत्मजागृति के लिए रचित उनकी ही 'अमृतवेल' की सज्झाय को वानगीरूप में एक ही है __ अमूठ लक्ष्या सर्वत्र पक्षपात विवर्जिताः श्रयन्ति परमान्दमायाः सर्वनयाश्रया।। निश्चय नय एवं व्यवहार नय में ज्ञानपक्ष एवं क्रिया पक्ष में एकपक्षगत भ्रांति का त्याग कर नय का आश्रय करने वाले परमानन्द से भरपूर महात्मा जयवंत वर्त हैं। आत्मजागृति के लिए रचित अमृतवेल की सज्जाय का एक पद दर्शाकर जनमानस को जागृत करने की सूचना दे रहे हैं चेतन ज्ञान अजुवालीये, टालीये मोह संताप रे। चित्त डमडोलतु वालीये, पालीये सहज गुण आप रे।। उपाध्याय यशोविजय का कर्तृत्व (साहित्य साधना) उपाध्याय यशोविजय ने नव्यन्याय, व्याकरण साहित्य, अलंकार, छंद, काव्य, तर्क, आगम, नय, प्रमाण, योग, अध्यात्म, तत्त्वज्ञान, आचार, उपदेश, कथाभक्ति तथा सिद्धान्त इत्यादि अनेक विषयों पर संस्कृत, प्राकृत और गुजराती भाषा में तथा ब्रज और राजस्थानी की मिश्रभाषा में विपुल साहित्य का सर्जन किया है। इनकी कृतियों में, सामान्य मनुष्य भी समझ सके, इतनी सरल कृतियां भी हैं और प्रखर विद्वान् भी सरलता से नहीं समझ सके, ऐसी रहस्यवाली कठिन कृतियां भी हैं। यशोविजय के सृजन और पाण्डित्य की गहराई तथा विशालता के विषय में प्रसिद्ध जैन चिन्तक पण्डित सुखलाल का कथन है कि शैली की दृष्टि से उनकी कृतियाँ खण्डनात्मक भी हैं, प्रतिपादनात्मक भी हैं और समन्वयात्मक भी। जब वे खण्डन करते हैं तब पूरी गहराई तक पहुंचते हैं। उनका विषय प्रतिपादन सूक्ष्म और विशद् है। ये जब योगशास्त्र या गीता आदि के सूक्ष्म तत्त्वों का जैन मन्तव्य के साथ समन्वय करते हैं, तब उनके गम्भीर चिन्तन का और आध्यात्मिक भाव का पता चलता है। उनकी अनेक कृतियां किसी अन्य ग्रंथ की व्याख्या न होकर मूल टीका या दोनों रूप से स्वतंत्र ही है, जबकि अनेक कृतियां प्रसिद्ध पूर्वाचार्यों के ग्रंथों की व्याख्या रूप है। यशोविजय की साहित्यिक कृतियों का सामान्य परिचय यशोविजय द्वारा रचित सम्पूर्ण साहित्य तो उपलब्ध नहीं है, फिर भी जितना उपलब्ध है, उससे उनकी बहुमुखी प्रतिभा, तलस्पर्शी ज्ञान और गहन मौलिक चिंतन का दिग्दर्शन होता है। यशोविजय की रचनाओं को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जा सकता है1. सम्पूर्ण विवरण प्राप्त कृतियां, 2. अनुपलब्ध संकेत प्राप्त कृतियां, 3. दार्शनिक कृतियों का विवेचन। सम्पूर्ण विवरण प्राप्त कृतियों को भी चार विभागों में बांटा जा सकता है1. सम्प्रति उपलब्ध स्वतंत्र ग्रंथ रचना, 2. सम्प्रति उपलब्ध स्वोपज्ञ टीकायुक्त ग्रन्थकलाप, 3. अन्यकर्तुक ग्रंथों की टीका स्वरूप सम्प्रति उपलब्ध ग्रंथराशि, 4. गुर्जर भाषा में रचनाएँ। 38 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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