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________________ यह महान् ज्योतिर्धर जन्म से अद्भुत क्षयोपशम लेकर ही प्रगट हुए थे। वे षड्दर्शनवेत्ता, सैकड़ों ग्रंथों के रचयिता, न्यायव्याकरण छंद, साहित्य, अलंकार, काव्य, तर्क, सिद्धान्त, आगम, नय प्रमाण, सप्तभंगी, अध्यात्म, योग, स्याद्वाद आचार, तत्त्वज्ञान, उपमितिभव प्रपंच कथा जो 16000 श्लोक प्रमाण संस्कृत ग्रंथ है, उनमें से उनका सार खींचकर गुर्जर भाषा में श्री विमलनाथ भगवान के स्तवन में लिखा है तत्व प्रीतकर पाणी पाए, विमला लोके आंजीजी। लोयण गुरु परमान्न दीये तब, भ्रम नारंवे सवि भांजीजी।। धर्मबोधक पाक्शास्त्री गुरु से प्राप्त किया हुआ सम्यक्दर्शन रूप तत्त्व प्रीतिकर पाणी, सद्शन दृष्टिरूप, निर्मल अंजन एवं सच्चारित्ररूप परमान्न (क्षीर) का स्वरूप लोकभाषा में एकत्रित किया है। सुमतिनाथ भगवान के स्तवन में दिखाया है मूल उर्ध्व तरूअर अध शाखा रे, छंद पारखे एवी छे भाषा रे। अचरिजवाले अचरिज कीधु रे, भक्ते सेवक कारज सीधु रे / / यही बात भगवद् गीता में दिये हुए श्लोक के साथ कितनी समान मिलती है, वो देखें उर्ध्वमूलघः शाखं, अश्चत्यं प्रादुरव्ययं। छन्दांसि यस्य पत्राणि, थस्तं वेद सवेदवित।।" इस श्लोक के रहस्य को आश्चर्य से हटाकर प्रभुभक्ति के लिए लोकभाषा में समन्वित किया / है। 150 एवं 350 गाथा के स्तवनों में निश्चय एवं व्यवहार के बहुत ही उपदेश हैं। उनमें अपूर्व युक्ति के साथ मूर्तिपूजा सिद्ध की है और कहा है मुज होजो चित्त शुभ भावथी, भय भव ताहरी सेव रे, याचीजे कोडी यले करी, एह तुज सागले दे रे। तुज वचनराज सुख आगले, नाथ गवु सुरनर शर्म रे, कोडी जो कपट कोई दाखवे, नवि तजु तोये तुज धर्म रे।। यही है उनका अद्भुत शासनराग एवं अलौकिक प्रभुभक्ति। पूज्य उपाध्यायजी महाराज की रहस्यमयी लेखनी का एक सुन्दर उदाहरण दिया है। नेमिनाथ प्रभु के स्तवन में राजीमति की प्रभु के पास शिकायत का वर्णन किया है। उसमें तीसरी कड़ी में कहा है - उतारी हुँ चितथी रे हां, मुक्ति धुतारी हेतु, मेरे वालमा। सिद्ध अनंते भोगवी रे हां, ते शु कयण संकेत, मेरे बालमा, तोरण थी.....।। अर्थात् यह कहा है कि हे स्वामी! आप नव भव के स्नेही को भूलकर एक कलंकरूप कुरंग के निमित्त को पाकर मुझको छोड़ते हो। उनका कारण मैं समझती हूँ कि आप धुतारी ऐसी मुक्ति स्त्री के प्यार के कारण ही मुझे चित्त में से निकाली है। किन्तु हे स्वामी! आपको पता नहीं है कि वो तो गणिका है। इनके भोक्ता अनन्त स्वामी हैं। ऐसी ही गणिका आपको फंसा रही है। उनके साथ आपने क्या संकेत किया है। आगे इसी स्तवन की चतुर्थ कड़ी में राजुल ही कह रही है कि प्रीत करता सोहली रे हा, निरवहतां जंजाल मेरे वालम।।100 उनका अर्थ है कि मेरे भव की प्रीत को आपने पहचाना ही नहीं, यह कितना अमंगल है। जगत् में प्रीत करना सरल है किन्तु निभाना कठिन है, आपने मेरे पर नव भव तक प्रीत तो कि किन्तु वो 36 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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