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________________ __ आर्य धर्म की तीन महान् शाखाएं हैं-जैन, वैदिक एवं बौद्ध। उनमें से बौद्ध धर्म ने विदेश में और वैदिक एवं जैन धर्म ने देश में अपना यशस्वी योगदान दिया है और दे रहे हैं। जैन धर्म ने संस्कार एवं धर्मग्रंथों की जो भेंट भारतवर्ष को दी है, उसमें 1444 ग्रंथों के रचयिता श्री हरिभद्रसूरि एवं ज्ञान विशाल के तमाम क्षेत्रों में विरचने वाले कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के नाम आज जैन धर्म एवं जैनेतर जनता में सब जानते हैं। उनके जैसी ही एक महान् विभूति ने आज से ढाई सौ वर्ष पूर्व अपने ज्ञान-सौरभ से भारत को एवं अधिकतर गुजरात को सदी तक सुवासित किया था। अपने उच्च चारित्र से, दिव्य साधुता से, प्रखर पाण्डित्य से, अद्वितीय बुद्धि-प्रतिभा से, अभिनव काव्य शक्ति से, सुदर्शन के तलस्पर्शीय ज्ञान से, नव्यन्याय की प्रखर मीमांसा से एवं धर्म-उत्थान से, भगीरथ प्रयत्नों से विशद यश प्राप्त करने वाले उस युगपुरुष का नाम था उपाध्याय यशोविजय। यशोविजय आगमिक, तार्किक, नैयायिक एवं दार्शनिक के साथ-साथ एक सफल गुर्जर भाषा के कवि भी थे। उनके काव्य नरसिंह एवं मीरां की तरह भक्ति से भरपूर हैं। उनकी पद-साहित्य के स्तवनों, भजनों की लोकप्रियता अधिक हैआश्रमभजनावलि में संग्रहित महात्मा गांधी का प्रिय भजन था चेतन अब मोहि दर्शन दीजे, तुम दर्शन शिवसुरव पामीजे। तुम दर्शन भव छीजे चेतन अब मोहि दर्शन दीजे।। ऐसे ही स्तवन यशोविजय का है, जो निम्न है-प्रभु के मुख्य दर्शन होते ही उनके भक्त हृदय में से कितनी सुन्दर एवं भव्य कल्पना प्रकट होती है अखण्डी अंबुज पाखण्डी, अष्टमी शशी सम भाल लाल रे। वंदन ने शरद चांवलो, वाणी अतिहि रसाल लाल रे।। प्रभु भक्ति में इसका जिन्होंने स्वाद चखा है, उनके लिए दूसरा रस निरर्थक है, जैसे अजित जिंणदशु प्रीतडी, मुज न गमे हो बीजनो संग के, मालती फूले मोहियो, किम वैसे हो बावलतरू भृग के अजित।। गंगाजल मां जे-रम्या, किम छिल्लर हो रति पामे माराल के। सरोवल जल जलधर बिना, नवि चाहे हो जग चातक बाल के।।......अजित।। कोकिल कल कुंजित करे, पामी मंजरी हो पंजरी सहकार के। आंधा तरूवर नवि गमे, गिरूआशुं हो होय गुणनो प्यार के.....अजित / / " हुओ छीपे नहि अधर अरूण जिम, खाता पान सुरंग। पीवत भरभर प्रभुगुण प्याला, तिम मुज प्रेम अभंग।। उपाध्याय की कितनी ही कृतियां गुर्जर साहित्य में अमर हो जाए ऐसी हैं। नवकार के प्रथम पद में अरिहंत पद के व्यवहार एवं द्वितीय सिद्ध पद में निश्चय है। अरिहंत परमात्मा के बिना सिद्ध की पहचान कौन करा सकता है। इस बात को ध्यान में रखकर उपाध्याय महाराज ने स्तवन में लिखा है निश्चय दृष्टि हृदय धरीजी, पाले जे व्यवहार। पुज्यवंत ते पामशेजी, भवसमुद्र नो पार / / 35 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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