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________________ विनोद करने के हेतु से नयोपदेश ग्रंथ की रचना उपाध्यायजी ने की है, ऐसा उल्लेख निम्न श्लोक में मिलता है ऐन्द्रधाम हदि स्मृत्वा नत्वा गुरुपदाम्बुजम् / नयोपदेशः सुधियाँ विनोदाय विधीयते / / तिडन्वयोकित की रचना उनके आद्य-पद्य के अनुसार नैयायिकों एवं शाब्दिकों को मन की खुशी के लिए की गई है। ऐसा उल्लेख मिलता है, जो पद निम्न है एन्द्रव्रजाभ्यचितपादपध्मं, सुमेरुधीरं प्रणिपत्य, वीरम। .. वंदामि नैयायिक शाब्दिकारां, भवोविनोदाय तिडन्वयोकितम् / / इसी प्रकार किसी कारण को आधार बनाकर उपाध्यायजी ने गुणरचना रूप कार्य का प्रकाशन किया। उपाध्यायजी का कर्म-विषयक निरूपण भी निराला मिलता है। उन्होंने जैन धर्म-सिद्धान्त के मूल ग्रंथ कम्मपयडी पर लघुटीका एवं कम्मपयडी बृहट्टीका रची है। अन्य ग्रंथों में भी उन्होंने कई सिद्धान्तों का विविध रूप से विशेष परिचय देकर धर्म-सिद्धान्त प्राशता को अस्खलित रखा है। कर्म सिद्धान्त जैन परम्परा का मूलाधार है, उसकी मौलिकता सम्पूर्ण जैन आम्नाय ने मान्य की है। कर्मवाद सदा से समस्त दार्शनिकों का विचार मंच बना है। परन्तु उपाध्यायजी एक निष्ठावान बनकर अपनी पारंपरिक कर्म-धारणाओं को शास्त्रीय सिद्धान्तों से समलंकृत करते हुए कर्म बीजों की विविधता से व्याख्यान देते रहे हैं। ऐसे महान व्याख्याकार, विवेचनकार, कर्म प्रकृतियों के पुरातन प्राश बनकर . हमारे सामने आज भी विद्यमान हैं। उनका कर्म विषयक वैदुष्य विशेष संस्मरणीय हमारे सिद्धान्त पक्ष . को सबल बनाने में सहायक रहा है। . जैसे ही आचार्य हरिभद्रसूरि के विंशतिविशिका ग्रन्थ पर योगविंशिकावृत्ति लिखकर एवं आठ दृष्टि की सज्झाय आदि की रचना करके योग के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व योगदान दिया। षोडशक प्रकरण में धर्म की शुरुआत से लेकर मोक्षप्राप्ति का मार्ग बताया गया है। हरिभद्रसूरि द्वारा विरचित इस ग्रंथ पर उपाध्याय यशोविजय ने योगदीपिका नाम की टीका रची। यह सुन्दर टीका मूल ग्रन्थ के रहस्यों को उजागर कर ग्रन्थ के रहस्य को स्पष्ट करती है। यह 16-16 आर्य श्लोकों में . रचित है। इसमें 16 अधिकार हैं। ___अलंकार चूडामणि, उत्पादादिसिद्धीप्रकरण, कम्मपायडी, काव्यप्रकाश, तत्त्वार्थसूत्र, वीतरागस्तोत्र, शास्त्रवार्ता समुच्चय एवं षोडशक प्रकरण आदि ग्रन्थों पर पूर्वाचार्य रचित टीका होने के बाद भी उपाध्याय ने अपनी नव्यन्याय शैली के माध्यम से नई टीका रची। यह उनकी एक विशेषता है। नव्यन्याय की शैली से न्याय विषयक ग्रन्थ निरूपण में उन्होंने सुन्दर नेतृत्व निभाया है, जैसे-नय रहस्य। न्यायालोक, नयोपदेश, नयप्रदीप, जैन धर्म परिभाषा, वादमाला आदि ग्रन्थों की रचना करके न्याय के विषय में चार चांद लगाये। उपाध्यायजी जितने दार्शनिक थे, उतने ही परमात्मा परायण के प्रतीक थे। उन्होंने अपनी आत्मवाणी को परमात्मा स्तुति में पावन बनायी थी। इस क्षेत्र में उन्होंने बहुत सारी रचनाएं की हैं। 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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