________________ भगवद् प्रदत्त त्रिपदी के आधार-स्तम्भ पर रचे गए आगम ग्रंथ और आगम ग्रंथों के आधारशिला पर रचित ग्रंथ दोनों श्रुतमान्य एवं विद्वद्भोग्य माने गये हैं। उसमें भी उपाध्याय यशोविजय के ग्रंथों ने तो अनेक विद्वानों का मार्गदर्शन किया है। धनाशा पोरवाल के द्वारा निर्मित 'नलिनीगुल्म विमान' के समान रणकपुरजी के भव्य जिनप्रासाद में बहुजन प्रसिद्ध एक विलक्षणता यह है कि इस जिनप्रासाद के 1444 स्तम्भ में से किसी भी स्तम्भ के पास खड़े रहो, किसी-न-किसी प्रकार से आपको परमात्मा के दर्शन होंगे, उसी प्रकार पू. उपाध्याय यशोविजय के रचित ग्रंथों में जैनदर्शन के सिद्धान्त, नव्यन्याय की शैली से निरूपण एवं दार्शनिक तत्त्व नेत्र समक्ष प्रतीत होंगे। दार्शनिक प्रश्नों के प्रत्युत्तर में अपना प्रखर पाण्डित्य प्रदर्शित करते हुए ज्ञान पूर्णता से छलके नहीं, न किसी को झकझोरा अपितु सभी विषयों का विद्वतापूर्वक अध्ययन करते हुए अपनी वाङ्मयी रचना में उन्होंने रोचक सन्दर्भ उपस्थित किये। अन्यान्य परम्पराओं का परमबोध करते हुए अपने स्वोपज्ञ ग्रंथों में उनका समुल्लेख करते हुए संशयापन्न विषयों का निराकरण करते हुए सदैव जागरूक रहे। जैसा कि शास्त्रवार्ता समुच्चय की टीका स्याद्वाद कल्पलता में सभी प्रकार से स्याद्वाद का उदाहरण देते हुए अपने मन्तव्यों को भव्यता से महत्त्वपूर्ण सिद्ध करते हुए एक अद्भुत दर्शनीय के रूप में प्रगटित हुए। वैदिक परम्पराओं से संबंधित जितने भी सन्दर्भ उन्हें समुपलब्ध हुए उनका तल-स्पर्शीय ज्ञान बढ़ाते हुए आत्म निर्ग्रन्थ मत से निराकृत बने हुए सभी को सहमत में रखने का सुन्दर अनेकान्तिक उपयोग किया है। बौद्ध परम्परा में क्षणिकवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद जैसे बौद्ध दर्शन प्रतिष्ठित प्रचारों या निर्विशेष / रूप से चर्चित कर स्याद्वाद सिद्धान्त को अर्पित किया है। कारण के बिना कोई कार्य नहीं होता है। ग्रन्थ के प्रणयनरूप कार्य को भी यह नियम लगता है। ऐसा न्यायाचार्य की कृतियों को देखते तो पता चलता है कि आत्मार्थी के हित के लिए गुरुतत्त्वविनिश्चय ग्रंथ की रचना की है, ऐसा उन्होंने आद्यपद्य में दर्शाया है। प्रस्तुत पद्य निम्न है पणमिय पास जिणंदं संरवेसरसंठियं महाभागं। अतट्ठाण हिअट्ठा गुरुततविणिच्छयं वुच्छं।। ऐसे ही परोपकार की भावना से नयरहस्य की रचना की है। जब उसका प्रारम्भिक भाग देखते हैं तो पता चलता है, जो उल्लेख निम्न है एन्द् श्रेणिनतं नत्वा वीरं तत्वार्थदेशिनम् / परोपकृतये ब्रूमो रहस्यं नयनवोचरम्।।" अर्थात् आत्मार्थी के पर-उपकार करने के लिए द्रव्य-अनुयोग-विचार रचित है। ऐसा निम्न पद्य से पता चलता है श्री गुरुजितविजय मनधरी, श्री नयविजय सुगुरु आदरी, आत्मअरथी पर उपकार करु, द्रव्य अनुयोग विचार। 32 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org