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________________ न्याय दर्शन में गंगेश उपाध्याय के बाद नव्यन्याय की प्रणाली प्रारम्भ हुई एवं उनका विकास पू. उपाध्याय महाराज के समय में हुआ, ऐसा हम कह सकते हैं। रघुनाथ शिरोमणि, गदाधर, जगदीश आदि के नव्यन्याय के ग्रंथ सूक्ष्म एवं तर्कशैली में है। जैनदर्शन में उस शैली के विषयों का प्रतिपादन पूज्य उपाध्याय महाराज ने किया। __ अष्टसहस्री, शास्त्रवार्ता समुच्चय की कल्पलता टीका, अनेकान्त व्यवस्था, नयोप्रदेश, नयामृत-तरंगिणी, वादमाला, न्यायखण्डखाद्य, ज्ञानार्णव, ज्ञानबिन्दु, तत्त्वार्थ टीका, प्रथम अध्याय आदि ग्रंथों को देखते हैं तो पता चलता है कि नव्यन्याय शैली का प्रयोग एवं प्रभुत्व खुद गंगेश उपाध्याय को भी बहुमान कराये देता है। उपाध्याय की कलम में खण्डनशक्ति के साथ समन्वय शक्ति भी है। ___अध्यात्मपरीक्षा, प्रतिमाशतक, धर्मपरीक्षा, गुरुतत्त्वविनिश्चय, 125 गाथा आदि स्तवनों, अनेक परमत खण्डन करके भी शक्ति का पूर्ण परिचय कराते हैं। उनके साथ ज्ञानबिन्दु आदि में उनकी समन्वयशक्ति का परिचय मिलता है। . नव्यन्याय की शैली से रचित न्यायखंडखाद्य ग्रंथ की महत्ता इस ग्रंथ में उपाध्याय ने प्रभु की स्तुति के उद्देश्य से स्याद्वाद का जो निरूपण किया है, वह चिंतनीय है। उन्होंने प्रथम प्रभु के अतिशयों का वर्णन करके, वाणी अतिशय का प्राधान्य बताकर बौद्धों के क्षणिकवाद का निरसन किया है। बौद्धों के द्रव्य का लक्षण 'अर्थक्रियाकारित्यं' से जो दोष आता है, वो दिखाते हैं एवं बौद्धों को अन्वय एवं व्यतिरेक व्याप्ति का भी दोष बीजत्व एवं सहकारी कारण जमीन एवं पानी भी होना अनिवार्य है। यह नियम समझाकर सौत्रालिक, वैभाविक, शून्यवाद, विज्ञानवाद, अनात्मवाद इन सबका सूत्र है 'यत् सत् तत् क्षणिकम्' को एकान्त गिनाकर दोषग्रस्त करते हैं तथा प्रभु के व्यवहार विशुद्ध नय को आधिपत्य देता है। उनके बाद काल एवं देश का स्वरूप समझाते हैं। न्यायखण्डखाद्य का प्रथम भाग तो बौद्धों के क्षणिकवाद का परिहार करने में ही पूर्ण होता है। न्याय दर्शन की कूटस्थ नीति को भी विवेचन किया है। द्रव्य को एकान्त नित्य या अनित्य मानने में जो दोष आता है, वह दिखाकर उनको नित्यानित्य का कथंचित् नित्य मानने की व्यवहार विशुद्ध नय की श्रेष्ठता को समझाया है। उनके बाद द्रव्य की उत्पत्ति एवं नाश का हेतु समझाकर वस्तु में रहे हुए भेदाभेद बताकर प्रत्यक्ष एवं प्रत्याभिज्ञा का स्वरूप दिखाया है। अतः न्यायखंडखाद्य पूरा नव्यन्याय की शैली में लिखा ग्रंथ है। उनकी मूलकृति एवं विद्वता से भरी संस्कृत टीका का वाचन करने जैसा है। इस प्रथम न्याय के विषय में उपाध्याय महाराज ने तन एवं मन से बहुत ही गहन योगदान दिया है, जो निर्विवाद सत्य है। सम्पूर्ण वाङ्मय के विषय से अवगत उपाध्याय यशोविजय के वैदुष्य विशेषताओं को लेकर वाङ्मय धरातल पर कल्पतरु बना। उनकी गहन गाम्भीर्यपूर्ण ज्ञान-साधना आज भी सजीवन्त उपलब्ध है। तत्कालीन जितने विषय प्रचलित थे, उन पर अपना अधिकार करने में अहर्निश अग्रसर रहे। जैन शासन में श्रुतसाधना की महत्ता अद्भुत एवं अलौकिक है। जो भक्ति से सराबोर होकर श्रुतसाधना में संलग्न हो जाता है, वह हमेशा स्व-परहित साधन बन जाता है। 31 For Personal Jain Education International www.jainelibrary.org Private Use Only
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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