________________ उनमें से पहली घटना अभ्यास के लिए काशी जाने की और दूसरी न्याय और दर्शनों का मौलिक अभ्यास करने की है। उपाध्याय कितने ही बुद्धि व प्रतिभामान क्यों न होते, उनके लिए गुजरात आदि में अध्ययन की सामग्री कितनी ही क्यों न जुटाई जाती, पर इसमें कोई संदेह ही नहीं कि वे अगर काशी में न जाते तो उनका शास्त्रीय व दार्शनिक ज्ञान, जैसा उनके ग्रंथों में पाया जाता है, संभव न होता। काशी में आकर भी वे उस समय तक विकसित न्यायशास्त्र खास करके नवीन न्यायशास्त्र का पूरे बल से अध्ययन न करते तो उन्होंने जैन परम्परा में और तर्क द्वारा भारतीय साहित्य को जैन विद्वान की हैसियत से जो अपूर्व भेंट दी है, वह कभी संभव न होती। दसवीं शताब्दी से नवीन न्याय के विकास के साथ ही सम्पन्न वैदिक दर्शनों में ही नहीं बल्कि समग्र वैदिक साहित्य में सूक्ष्म विश्लेषण और तर्क की एक नई दिशा प्रारम्भ हुई और उत्तरोत्तर अधिक से अधिक विचार विकास होता चला जो अभी तक हो ही रहा है। इस नवीन न्यायकृत नव्ययुग में उपाध्याय के पहले भी अनेक श्वेताम्बर, दिगम्बर विद्वान् हुए, जो प्रतिभासम्पन्न होने के अलावा जीवनभर शास्त्रयोगी भी रहे, फिर भी हम देखते हैं कि उपाध्याय के पूर्ववर्ती किसी जैन विद्वान् ने जैन मन्तव्यों का उतना सतर्क-दार्शनिक विश्लेषण व प्रतिपादन नहीं किया, जितना उपाध्यायजी के काशीगमन में और नव्यन्याय शास्त्र के गम्भीर अध्ययन में है। नवीन न्यायशास्त्र के अभ्यास से और तर्कमूलक सभी तत्कालीन वैदिक दर्शनों के अभ्यास से उपाध्याय का सहज बुद्धि-प्रतिभा-संस्कार इतना विकसित और समृद्ध हुआ कि उसमें से अनेक शास्त्रों का निर्माण होने लगा। उपाध्याय के ग्रंथों के निर्माण का निश्चित स्थान व समय देना अभी संभव नहीं। फिर भी इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि उन्होंने अन्य जैन साधुओं की तरह मन्दिर निर्माण, मूर्तिप्रतिष्ठा, संघ निकालना आदि बहिर्मुख धर्मस्थलों में अपना मनोयोग न लगाकर अपना सारा जीवन जहां वे गए और जहां वे रहे, वहीं एकमात्र शास्त्रों के चिंतन तथा नव्यशास्त्रों के निर्माण में लगा दिया। जैन दर्शन का स्याद्वाद वर्ग जैन सिद्धान्तों की तत्त्वव्यवस्था को, उनके सर्वसुसंवादी शास्त्रज्ञान को उन्होंने अपनी नव्यन्याय की भाषा में जिस प्रकार से साहित्य में उतारा है, वो सही में अमृत है। उनके न्यायग्रंथ का जब-जब भी मनन, परिशीलन करने में आए तो उस सतत् अभ्यासी प्रज्ञाशील बुद्धिमान मानव को भी पल-पल में अनेक ग्रंथों में से एक विपरीत में नया तत्त्व ही देखने को मिले। शब्द अल्प एवं भाव गम्भीर, यह पूज्यश्री के न्यायग्रंथों की स्वतंत्रशैली है। यह शैली पू. हरिभद्रसूरीश्वर के ग्रंथों के सतत् परिशीलन के फलस्वरूप उनको सहज बनी हो, ऐसा हम कह सकते हैं। उपाध्याय दार्शनिक विषय के प्रमुख विद्वान् थे। तत्कालीन जो भी जैन जैनेत्तर दार्शनिक प्रखर विद्वान् थे, उन सबमें उनका स्थान अद्वितीय था। उनकी प्रत्येक कृति उस विषय की अन्तिम एवं उत्कृष्ट कृति है, ऐसा कहें तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। जो हरिभद्रसूरिकृत शास्त्रवार्ता समुच्चयकृति की स्याद्वादकल्पता नामक उपाध्याय की रचित टीका जैनदर्शन के पदार्थों को नव्यन्याय की शैली में प्रतिपादन करने की अद्भुत साहित्य कृति है। इस टीका में उन्होंने स्व-परदर्शन शास्त्रों का अगाध पाण्डित्य व्यक्त किया है। दर्शनशास्त्रों के समर्थ विद्वान् जब भी आचार, उपदेश, भक्ति के कोई भी विषय पर सर्जन करने बैठे तो उस विषय के सर्वत्र क्षेत्रों के अंग-प्रत्यंगों को सम्पूर्ण रीति से स्पर्श करता है। सही में पूज्यश्री की इस सर्वोतोमुखी प्रतिभा का वर्णन आश्चर्यजनक है। 30 . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org