________________ यह वस्तस्थिति प्रकाशन में वाचक यशोविजय ने जैनदर्शन एवं उनके द्वारा भारतीय दर्शनों में जो आगे योगदान दिया है, उनका बस हम विचार करते हैं तो उनका भाग्य अपने आप सामने उपस्थित हो जाता है। आचार्य गंगेश ने भारतीय दर्शन में नव्यन्याय की स्थापना की। उनके विचार को व्यक्त करने की एक नई प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ। उनके बाद सभी दर्शनों को उस नई शैली का आश्रय लेना पड़ा। उनका कारण यही है कि कोई भी विचार को स्पष्ट व्यक्त करने के लिए नव्यन्याय शैली जितनी उपकारक है, उतनी सहायता प्राचीन प्रणाली में नहीं मिलती है। इसलिए ही शास्त्रकारों को अपने विचारों को उस शैली में व्यक्त करने की आवश्यकता हुई। यही कारण है कि व्याकरण एवं अलंकारों में भी उस शैली का आश्रय लिया गया। किन्तु वह शैली कई वर्ष के प्रचलन के बाद भी उस शैली से जैनदर्शन एवं जैनसाहित्य दोनों वंचित थे। भारतीय साहित्य के सभी क्षेत्रों में उनका प्रवेश हुआ पर जैन-साहित्य में नहीं हुआ था। उसका कारण जैनाचार्यों की शिथिलता ही है। ऐसा मानना चाहिए, क्योंकि अपने शास्त्रों को नित्यनूतन रखना हो तो उनके लिए जो-जो अनुकूल या प्रतिकूल विचार अपने समय तक विस्तरित हुआ हो, उनका यथायोग्य अपने शास्त्रों में समावेश करना आवश्यक है अन्यथा वो शास्त्र दूसरे शास्त्रों की बराबरी में नहीं आ सकता। चार सौ, साढ़े चार सौ वर्ष के विकास का समावेश अकेले वाचक यशोविजय ने जैनशास्त्र में किया। इनके इस महान कार्य का जब हम विचार करते हैं तो उनके सामने हमारा सिर नतमस्त हो जाता है। उन्होंने अनेक विषय के ग्रंथ लिखे। अगर न भी लिखे होते तो भी जैनदर्शन को नव्यन्याय की शैली में रखकर अपूर्व कार्य किया है। उससे ही उनकी अमरता, महानता सिद्ध होती है। . 18वीं सदी के उपाध्याय ने जो कार्य किया, वह वापिस वहीं रुक गया है। उनके बाद भारतीय दर्शन में भी कोई विकास नहीं हुआ। इस प्रकार नित्य निर्विवाद और निश्चल जैसे अनेकान्तवाद का सर्वोपरी सिद्धान्त बनाने का श्रेय श्रमण-संस्कृति को मिला है। उपाध्याय ने श्रमण-संस्कृति के एक उत्कृष्ट महान् श्रुतधर के रूप में समवतरित होकर एवं नव्यन्याय की शैली का जैनदर्शन में प्रवेश कराकर सारे संसार के दिग्गज बंधुओं को अनेकान्त का पुरस्कार प्रस्तुत कर दिया। यह उनकी समदृष्टि स्याद्वाद अविकारिता समुपलब्धि होती है, जो अनेकान्त संज्ञा से दार्शनिक जगत् में दिव्य शंखनाद करती रही है। इस प्रकार जीव-विषयक, ज्ञान-विषयक, स्याद्वाद विषयक, नव्यन्यायशैली विषयक इनका दृष्टिकोण प्रशंसनीय रहा है। न्याय के विषय में योगदान-भारतीय दर्शनों में छः दर्शन वेदमूलक हैं। वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा-इन छः दर्शनों में से तीन दर्शनों की मूल भित्ति परमाणुवाद है। न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा-दर्शन में परमाणुओं से जगत् की सृष्टि बताई है। पृथ्वी, जल, तेज एवं वायु के परमाणु होते हैं, इसलिए पृथ्वी, जल, तेज, वायु नित्य और अनित्य ऐसे दो विभागों में विभक्त हैं, परमाणु नित्य एवं सक्रिय पदार्थ है। उनका स्वरूप सूक्ष्म है। उपाध्याय के बाह्य जीवन की स्थूल घटनाओं का जो संक्षिप्त वर्णन किया गया है, उसमें दो बातें खास महत्त्व की हैं, जिनके कारण उपाध्याय के आन्तरिक जीवन का स्तोत्र यहां तक अन्तर्मुख होकर विकसित हुआ कि जिसके बल पर वे भारतीय साहित्य में और खासकर जैन परम्परा में अमर हो गये। 29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org