________________ खण्डनखण्डखाद्य मूल तो मात्र 100 श्लोक का ग्रंथ है, टीका भी इतनी विस्तृत नहीं है। फिर भी उपाध्यायजी ने अन्यत्र उल्लेख किया है कि उन्होंने बौद्धन्याय के खण्डन लिए स्वयं डेढ़ लाख श्लोक प्रमाण ग्रन्थ की रचना की है। तब आश्चर्य होता है कि कैसी असाधारण विद्वत्ता होगी। कैसा उपकारी सादा जीवन? कैसी शासन सेवा? उनकी कृतियों का पार पाने के लिए कौन समर्थ है? ज्ञानसार अष्टक के प्रथम अष्टक की प्रथम गाथा के द्वितीय पद में कहा है-“सच्चिदानन्दपूर्णेन पूर्ण जगद अवेक्ष्यते" ऐसा उल्लेख है। शुद्ध सचित् आनन्द पूर्ण जो सिद्धात्मा है, वो जगत् को पूर्ण रीति से देखते हैं। इस पर सहज ही प्रश्न हो सकता है कि जगत् तो अज्ञान है, दुःखी है, ऐसी स्थिति में चित् पूर्ण या आनन्दपूर्ण कैसे रहा? सिद्धभगवान तो सर्वत्र हैं तो उन्होंने जगत् का दर्शन क्या अयथार्थ किया? तब इस प्रश्न का समन्वय करते हुए उपाध्यायजी सिर्फ एक ही लाईन में उत्तर देते हैं कि "निश्चय नय की दृष्टि से यह भ्रान्ति नहीं है। संक्षेप में ही सही कैसा समन्वय करके रहस्य को उद्घाटित किया। मैं बान्धवों के बन्धनों से, शत्रुओं की शत्रुमयी भावनाओं से भयभीत बनने वाला नहीं हूँ, कोई बन्धु अथवा शत्रु हमारे समक्ष हो या परोक्ष में हो किन्तु उनके उच्चारणों का और आचरणों का विधिवत् विचार करके आश्रय लेना चाहिए। उपयुक्तता से स्वीकार करना चाहिए, यही हमारी समन्वयवादिता है। जो उपाध्याय यशोविजय में देखने को मिलती है। किसी भी वस्तु को हम स्याद्वाद के सिद्धान्त को आधार बनाकर देखेंगे एवं दोनों के बीच समन्वय की भावना रखेंगे तो वस्तु का सही स्वरूप देखने को मिलता है। उपाध्याय महाराज कहते हैं "इहामुत्राऽपि स्तान्मे मतिरनेकान्त विषये" आभव एवं परभव में मेरी मति अनेकान्त रूप हो, ऐसा उन्होंने मांगा था। अतः हम कह सकते हैं कि आजीवन समन्वयवाद के समर्थक, संचालक एवं प्रयोजक रूप से प्रतिष्ठित रहने का प्रबल प्रयत्न उपाध्यायजी का दार्शनिक जगत् में रहा है, जो दिव्य समन्वयवाद या प्रकाशस्तम्भ होकर प्रज्ञा-प्रबन्ध का महोत्सव मनाता रहेगा। श्रेष्ठ दार्शनिक या दार्शनिक दृष्टिकोण उपाध्याय अध्यात्मयोगी के साथ-साथ एक श्रेष्ठ दार्शनिक भी थे। उनके ग्रंथ का अध्ययन करने से उनकी प्रखर बौद्धिक प्रतिभा का परिचय मिलता है। अपने ग्रंथों में आपने धर्म एवं दर्शन के गूढ़ एवं जटिल सिद्धान्तों को जन-साधारण की भाषा में सरल एवं बोधगम्य ढंग से प्रस्तुत किया है। षड्दर्शनों के साथ जैनदर्शन का समन्वय, स्याद्वाद का स्वरूप, नयवाद का स्वरूप, सत् का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप तथा द्रव्य का गुण पर्यायमय स्वरूप, विधि-निषेध द्वारा आत्मस्वरूप की समझ आदि दार्शनिक तत्त्वों के विविध पहलुओं का विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से सहज एवं सुबोध रूप में उजागर किया है। उपाध्याय यशोविजय के द्वारा रचित रचनाओं में प्रांजल रूप में दार्शनिक दृष्टिकोण दृष्टिगोचर होता है। उस समय दार्शनिक जगत् में एक दयनीय कोलाहल तुमुल रूप में ताण्डवनृत्य कर रहा था। बड़े-बड़े दिग्गज दार्शनिक दिङ्नाग नागार्जुन, आचार्यशंकर, मीमांसक, कणाद, अक्षपाद आदि के मत मतान्तर प्रसिद्ध थे। ऐसे समय में उपाध्यायजी दार्शनिक दृष्टिकोण में स्याद्वाद का दुन्दुभि लेकर तत्कालीन दार्शनिकों के सामने निर्विरोध समवतरित हुए तथा स्याद्वाद का बोध व्यक्तियों को आदरपूर्वक देने का सुप्रयास जारी रखा। विरोधियों को भी विवेक देने का विश्वस्त विद्यायोग साधा। विरोधियों के साथ 26 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org