________________ वैमनस्य का त्याग करके सौहार्दता एवं सामंजस्यता की भावना जागृत करते हुए प्रामाणिक सिद्धान्त के रहस्य उनके सामने प्रदर्शित किये। वाचकवर्य पूर्वधर महर्षि उमास्वाति महाराज के स्वरचित तत्त्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय में दिखाया है कि “उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्"। (सूत्र 29) उत्पत्ति, विनाश एवं ध्रुव इन धर्मों से युक्त होता है, उसे सत् कहते हैं। तद भावाव्यंम् नित्यम्। जो स्वभाव से परिवर्तित नहीं होता, उसे नित्य कहते हैं। अर्पिता नर्पिते सिद्धे।" अर्पितम एवं अनर्पित की ही सिद्धि होती है। उक्त तीनों सूत्र स्याद्वाद को स्पष्ट करते हैं। जैनदर्शन जिस पर निर्भर है, आगमशास्त्रों में स्थान पर जिनका विधान है, सर्वज्ञ परमात्मा एवं गणधरों आदि मुनिमहात्मा अपने प्रवचनों में एवं कृतियों में सर्वोच्च स्थान देते हैं, ऐसा अनेकान्त-स्याद्वाद को जैनेतर प्राचीन सिद्धान्तों ने भी अपने ग्रंथों में ग्रहण किया है, जो प्रमाण निम्न है। ऋग्वेद "ना सदासीन्नो सदासीतदानी"।" उस काल में सत् भी नहीं था और असत् भी नहीं था, ऐसा ब्रह्म के वर्णन में है। कठोपनिषद् "अणोरणीयान् महतो महीयान्"। वो अणु से भी छोटा है एवं महान् से भी महान् है, ऐसा यह ब्रह्म के वर्णन में है। ईशावास्योपनिषद्- "तदेजति तन्नजति तददूरे तदन्तिके"180 वो हिलता भी है और नहीं भी हिलता है, वो दूर भी है और नजदीक भी है। भगवद्गीता "संन्यास कर्मयोगश्च! निःश्रेयस करावुभौ।"। संन्यास भी कल्याणकारी है एवं कर्मयोग भी कल्याणकारी है। विष्णुसहस्र नाम- "अनेकरूपरूपाय विष्णव प्रभविष्णवे"। अनेक रूप वाला स्वरूप जिसका है, वो समर्थ विष्णु है। मनुस्मृति "अनार्यमर्यकर्माणमार्य चानार्यकमिणम्।" सम्प्रघार्याब्रवीद घातां संभौ ना समापति।।"82 आर्य आचारवाले अनार्य को एवं अनार्य आचार वाले आर्य को लक्ष्य रखकर ब्रह्म ने कहा कि दोनों सम भी नहीं हैं और असम भी नहीं हैं। यानी अपेक्षाभेद से दोनों समान भी हैं एवं असमान भी हैं और एकान्त से सम भी नहीं हैं और असम भी नहीं हैं। महाभारत-इसमें व्यास ऋषि ने कहा है“यो विद्वान् सह संवासं विवासं चैय पश्यति, तथैवेकेत्व-नानात्वे स दूरवात् परिमुच्यते।" जो विद्वान् चैतन्य के साथ भेदाभेद एवं एकत्व को देखता है, वो दुःख से मुक्त होता है। 27 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org