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________________ "सेयंबरोवा आसंबरो बुद्धो वा अहप अण्णो वा। समभावभावि अप्पा, लहई मुक्खं न संदेहो।।"60 अपनी आत्मा को समभाव में समाधिस्थ रखने वाला निःसंदेह मोक्षसुख को उपलब्ध करता है। वह यदि श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, तथाजन बुद्ध या अनुयायी या इसके सिवा अन्य अन्यतर कोई भी हो, सभी के लिए समभाव के समन्वयवाद में रहने का अधिकार है और वह निःसंदेह मोक्ष को प्राप्त करता है। उपाध्याय का व्यक्तित्व समन्वयवादी एवं सहिष्णु था। उनके ग्रन्थों, पदों, श्लोकों में धार्मिक उदारता एवं सहिष्णुता का परिचय मिलता है। जिस धर्म एवं दर्शन में व्यापक एवं उदार दृष्टिकोण का अभाव रहता है, वह एकांगी, एकपक्षीय होता है। इस सम्बन्ध में उपाध्याय का स्पष्ट उद्घोष है कि वीतराग परमात्मा के चरणों का उपासक संकीर्ण, राग-द्वेष धर्म अनुदार एकान्तिक दृष्टि नहीं हो सकता। वह 'अपना सो सच्चा' इस सिद्धान्त के बदले 'सच्चा सो अपना' सिद्धान्त का पक्षपाती होगा। इसी उदारदृष्टि के कारण वह जहाँ-जहाँ सत्य मिले, बिना किसी संकोच से उसे अपना लेते थे। उनकी अनेकान्तिक दृष्टि स्पष्ट, उदार, सर्वांगी होती है। यशोविजय ऐसे ही उदारमन सन्त थे। इसलिए वे षड्दर्शनों को जिनेश्वर देव के छह अंगों के रूप में सुस्थापित करते हुए कहते हैं कि वीतराग परमात्मा का चरण उपासक जो किसी एक दर्शन का नहीं, षड्दर्शन का आराधक होता है। आनन्दघनजी महाराज ने अपने पद में इस बात का समर्थन करते हुए कहा है कि "षड दरिसण जिन अंग भणीजै, न्यास षडंग जे साधेरे। नमि जिनवर ना चरण उपासक, षडदरसण आराधेरे।।170 - उनके अनुसार वीतराग का उपासक सभी दर्शनों का आराधक होता है। वह सर्वदर्शनों एवं सर्वध नर्मों के प्रति सहिष्णु होता है। किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता, क्योंकि उसकी दृष्टि इतनी व्यापक सत्यग्राही, उदार और सहिष्णु होती है कि उसके लिए कोई भी दर्शन पराया नहीं रहता। लेकिन ऐसा केवल तभी हो सकता है, जबकि वह केवल अनेकान्त की, समन्वयवादिता की खोटी चर्चा न करे, उसे जीवन में भी उतारे। जैन दर्शन की व्यापकता का मनोरम चित्र खींचते हुए उपाध्याय कहते हैं कि जिनवरमा सगला दरसण छे, दरसण जिणवर भजना रे। सागरमा सधती तटनीछे, तटिनी सागर भजना रे।।". - जैन दर्शन विशाल महासमुद्र है, जिसमें अनेक नदियों के रूप में विभिन्न दर्शन समाविष्ट हैं, किन्तु नदी रूप अन्य दर्शनों में समुद्ररूप जैनदर्शन आंशिक रूप से समाहित है। इससे विदित होता सीख देते हैं। उपाध्याय जैन मतावलम्बियों को उदार एवं सर्वदर्शन समन्वयी बनने की स्पष्ट सीख देते हैं। पू. उपाध्याय के ग्रन्थों की विशिष्टता का वर्णन करने बैठ जायेंगे तो शायद पुस्तकें भी मर्यादित हो जायेगी। उन्होंने एक-एक बात में इतना सरल एवं सटीक भाषा में समन्वय दिया है, जो निर्विवाद है, जैसे खण्डनखनडखाद्य यानी महावीरस्तव नामक ग्रन्थ में बौद्धमत की मौलिक मान्यताओं को तर्क में अनुतीर्ण कहकर अद्भुतरीति से तर्क प्रमाण के बल पर सटीक खण्डन किया है। स्वोपज्ञ टीका में उन्होंने उदयनकृत 'आत्मतत्वविवेक' नामक बौद्धमत का खण्डन दीघतिकारकी रची हुई टीका की पंक्तियों पर अद्भुत विवेचन किया है। 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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