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________________ पुनः-पुनः उनकी प्रतिभा प्रकर्ष वाङ्मय की विभिन्न धाराओं में धैर्यवान होकर धी-धन को कर्मठता से कर्तव्यपरायण बनाते रहे। उनका वाङ्मय व्यक्तित्व विशद रहा है, जो उपाध्याय यशोविजय को मिले हुए भिन्न-भिन्न विरुदों से चरितार्थ होता है। उनका चरित विद्या वैभव से चमत्कृत बन वाङ्मयी सृष्टि को एक सृष्टा स्वरूप प्रस्तुत करता है। सृजन और विसर्जन के विधानों से अपना आत्म-विशेष श्रुतसेवना में समभिरूढ़ रखने का संकल्प उनके प्रत्येक ग्रंथ में दृश्यमान रहा है। उनके ग्रन्थों की पंक्तियों में विषयों का निरूपण नितान्त निराला मिलता है। कहीं दुःसाहस नहीं, दैन्यभरे वाक्य-विन्यास नहीं, अपितु स्वसिद्धान्त साधक शब्दों का प्रवाह प्रमाणभूत रहा है। चाहे दार्शनिक विषय हो, ऐतिहासिक प्रसंग हो या जन्म-जन्मान्तरीय अवबोध का प्रसंग हो, वहाँ पर भी इतने ही निष्णात बनकर निरूपण करने में वे निष्ठावान दिखाई देते हैं। तार्किकजालों के बीच में आत्मस्थ को कहीं भी न तो फँसने दिया, न उलझने दिया है, क्योंकि उनका स्वयं का जीवन विद्यामय विवेक से व्युत्पन्न रहा है। इसलिए उनकी वाङ्मय साधना सर्वत्र श्लाघ्य रही है। साहित्य की सीमा को सुरक्षित रखा तथा दार्शनिक तत्वों को तात्विकता से कुशलमय करने का कर्मठपन क्रियान्वित किया। समन्वयवादी या सर्वधर्म सहिष्णु आचार्य हरिभद्र का समन्वय सर्वत्र विश्रुत रूप से समाहित हुआ है। उपाध्याय यशोविजय का एक स्वतंत्र, स्वाधीन, समन्वयवाद सभी दार्शनिकों को सुप्रिय लगा। आत्म-मन्तव्य की महत्ता को महामान्य रूप से प्रस्तुत करने का महाकौशल उपाध्यायजी को जन्मजात रहा था, क्योंकि वैदिक संस्कृति के विद्या वात्सल्य में उनका मानस पण्डित बना था और वही पण्डित मानस श्रमण संस्कृति के स्नातक बन शास्त्रीय धाराओं में समता को और क्षमता को सन्तुलित रखने में सर्वथा प्रशंसनीय रहा। समन्वयवाद में सभी को सादर सम्मिलित करने का विशाल विचार समुद्भावित किया। अपने-अपने मत-मन्तव्यों से मथित बना हुआ, ग्रसित रहा हुआ मानस सहसा मुड़ने में समय लगाता है परन्तु उपाध्याय यशोविजय एक साथ समय को लेकर सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते हुए पूर्ण प्राज्ञता का एक अद्भुत प्रस्ताव प्रस्तुत कर सभी के हृदयों को जीतने के प्रयास करते हैं, क्योंकि आत्म-सम्मान मतान्तरों के महात्म्य में मग्न बनकर अन्य के मूल्यांकन में प्रायः कातर कार्पण पाया जाता है। परन्तु उपाध्यायजी के मेधा और मानस में उदारतावाद का उच्च ध्येय था। समन्वयवाद का सक्षम संकल्प था अतः वे निर्विरोध प्रत्येक दार्शनिक ग्रन्थों में गौरवान्वित रूप से गुम्फित हुए। उन्होंने भी अपनी दार्शनिकता में दिव्यभावों को दर्शित कर ससम्मान सभी को आमंत्रित किया है। अन्यों में आत्मीयता से महोच्च पद पर प्रतिष्ठित करने का शब्द विन्यास शालीन रहा। चाहे वे विरोधी हों, पर उनको निर्विरोध रूप से निरपराधभाव से भूषित करूं अपितु दूषित न बनाऊँ। दूसरों पर दोषारोपण का प्रयोग प्रायः दर्शन जगत् में तुमुल मचाता रहा है परन्तु यशोविजय ने इस चिरकाल के संघर्ष को एक प्रशस्त पुरोवचन से उनको प्रभावित करने का, पूजित करने का उपयोग समन्वयवाद के नाम से विख्यात किया। 'सम्बोध प्रकरण' जैसे महाग्रन्थ में तत्कालीन सम्प्रचलित सभी आम्नायों को समभाव में रहने का समुचित सुबोध सम्बोधित किया 24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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