________________ मोक्ष क लक्ष्य रखकर यदि एक ही पद का बार-बार चिन्तन करने में आये तो वो उत्कृष्ट ज्ञान है। ज्यादा पढ़ने का आग्रह नहीं है। उसी प्रकार 'पढमं नाणं तओ दया' / प्रथम ज्ञान पश्चात् दया, जब तक दया का ज्ञान नहीं होगा, वहाँ तक दया का पूर्ण पालन नहीं हो सकता। _ 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है। इस तथ्य के उपाध्यायजी बहुत पक्के थे। सूत्रकृतांग में भी 'आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खे'68 विद्या और आचरण को मोक्ष का साधन कहा गया है। ___ ज्ञान से संयुक्त क्रिया ही मोक्षफल का साधन बनती है। ज्ञान के बिना मनुष्य का मूल्य पशु तुल्य हो जाता है इत्यादि पंक्तियों का चिंतन करते हुए ज्ञान को अत्यन्त कुशलता के साथ आत्मसात् किया। जहाँ तक आत्मा में साहसिकता नहीं आती है, वहाँ तक कार्य की सिद्धि अप्राप्य है। वाङ्मय के अंतःस्थल तक पहुंचने का उन्होंने पूर्ण प्रयास किया। उनकी कुशलता उनके ग्रंथों में प्रदर्शित हुई। किसी भी गाथा, श्लोक या ग्रंथ को उठाकर देख लीजिए, उनका सर्वोतोमुखी विद्या का कर्मठ व्यक्तित्व आपको छलकता हुआ सामने आयेगा। वे आजीवन विद्या के विकास में विकसित रहे। स्याद्वाद के सिद्धान्तों को उन्होंने जन-जीवन में एवं विबुधजनों में सहज रूप से उजागर किया है तथा महावीर परमात्मा के उपदेशों से विद्वद्जनों एवं सर्व-सामान्यजनों को परिचित कराया। __ सिद्धान्तों के गूढ़ रहस्यों को सरल-सुबोध रूप में भी भव्य प्राणियों को समझाने की कुशलता इनमें थी। .. जो स्वयं के प्रज्ञाबल को सर्वज्ञ में स्थित करके सरल समन्वयवादी प्रतिष्ठा के प्रतिनिधि हुए और परमात्मा के प्रतिनिधित्व को संभाला। अनेक प्रकार के श्रुतोपासना में तन्मय बनकर जैनशासन के गगनमण्डल में सूर्य की भांति तेजस्वी बनकर सुशोभित हुए। अनेक आचार्यों का यह समर्थन है कि आज दिन तक ऐसा कवि प्रज्ञावान पुरुष नहीं हुआ, जिन्होंने उनके सम्पूर्ण वाङ्मय को जाना है। उनका विद्या के प्रति कितना आकर्षण होगा, वह उनके न्याय के शतग्रंथों की रचना दो लाख श्लोकप्रमाण एवं रहस्य से अंकित 108 ग्रंथों से ज्ञात होता है। उनका महत्त्व काशी के एक प्रसंग से पता चलता है। जब उपाध्याय अपने गुरु नयविजय के साथ काशी में न्याय आदि के अभ्यास के लिए गए थे, तब वहां के ब्राह्मण भट्टाचार्य जैन मुनियों को नहीं पढ़ाते थे। तब उन्होंने नामान्तर एवं वेषांतर करके तीन साल तक काशी में अभ्यास किया एवं न्याय में इतने पारंगत हो गये कि एक ब्राह्मण पण्डित को भी वाद में हराकर भट्टाचार्य को प्रसन्न कर दिया। तब वहां के पण्डितों ने न्यायाचार्य विरुद से विभूषित किया था। गहन न्यायग्रन्थ तत्त्वचिंतामणि जो भट्टाचार्य उन्हें नहीं पढ़ाने वाले थे, वह गहन न्यायग्रंथ गुरु की गैरहाजरी में गुरुपत्नी के पास से लाकर एक रात में पूरा कण्ठस्थ करके दूसरे दिन वापिस दे दिया था। वह ग्रन्थ लगभग 12,000 श्लोक प्रमाण था। इससे हम कह सकते हैं कि इतना परिश्रम एक विद्यापिपासु ही कर सकता है। 'विद्यार्थिनः कुतोः सुखम्' इस युक्ति को अपने जीवन में हृदयंगम उन्होंने कर लिया था। उस समय में अनेक दार्शनिक हुए, फिर भी लघुहरिभद्र के रूप में उपाध्यायजी जैसा स्थान कोई नहीं ले सका। 23 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International